मनोज जैसवाल : नई दिल्ली। क्या गोपीनाथ मुंडे की बीजेपी को कोई जरूरत नहीं है? आखिर क्यों महीनों तक ये चेहरा राजनीति से दूर रहा और जब अचानक सामने आया तो बागी हो गया। बीजेपी के बागी हुए इस नए चेहरे ने पार्टी में तूफान खड़ा कर दिया है। बीजेपी में किसी कद्दावर क्षत्रप का अचानक बागी हो जाना कोई नई बात नहीं है। कल्याण सिंह, उमा भारती, बाबू लाल मरांडी, गोविंदाचार्य जैसे कई नेता गोपीनाथ मुंडे की राह पर चले और पार्टी से कुट्टी कर बैठे। आम चुनावों में बीजेपी को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी।
गोपीनाथ मुंडे महाराष्ट्र के कद्दावर ओबीसी नेता हैं। महाराष्ट्र में पार्टी को खड़ा करने वालों में उनका नाम लिया जाता है। अन्य पिछड़े वर्ग से आने वाले मुंडे को इसी वजह से बीजेपी-शिवसेना की सरकार में उपमुख्यमंत्री भी बनाया गया था। लेकिन अब मुंडे के लिए हालात दुश्वार हो गए हैं। वो सरेआम कह रहे हैं कि पार्टी में लोकतंत्र नहीं बचा है। कुछ लोग किचन कैबिनेट की तरह फैसला ले लेते हैं। कार्यकर्ताओं की नहीं सुनी जा रही है।
दरअसल मुंडे की बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी से कतई नहीं पटती है। महाराष्ट्र में गडकरी को अगड़ों के नेता के तौर पर जाना जाता है। अगड़ों और पिछड़ों की ये लड़ाई बीजेपी में नई नहीं है। पिछड़े वर्ग से ही आने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को भी पार्टी ने बड़े ही नाशुक्राना अंदाज में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। उस वक्त प्रदेश बीजेपी की कमान राजनाथ सिंह संभाल रहे थे।
ऐसे ही जब मध्य प्रदेश में पिछड़ी लोधी कैटेगरी से आने वाली उमा भारती की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी तो पार्टी ने पहले तो उनके पर कतरे लेकिन उनके ना मानने पर उनको भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। लंबे वनवास के बाद हाल में पार्टी में उनकी वापसी हुई। उसी तरह रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान यूपी के ही कद्दावर नेता साक्षी महाराज को भी पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। ये फेहरिश्त और लंबी है जिसमें गंगाचरण राजपूत से लेकर बाबू लाल मरांडी तक का नाम है।
अगड़ी जाति से आने वाले गोविंदाचार्य ने भी जब पार्टी में सोशल इंजीनियरिंग की पैरवी कर पिछड़ों को आगे लाने की हिमायत की थी तो उनको भी पार्टी ने किसी ना किसी बहाने से अपने से दूर भेज दिया। यही हाल गुजरात के नेता शंकर सिंह बाघेला के साथ हुआ और आज वो कहां हैं, ये सबको पता है। बीजेपी ने सत्ता हासिल करने के लिए अपने कई विवादास्पद मुद्दे ठंडे बस्ते में डाल दिए थे लेकिन पार्टी को सभी वर्गों के बीच लोकप्रिय बनाने की कोई बड़ी कवायद नहीं की। ओबीसी और जनाधार वाले नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना बीजेपी को महंगा पड़ सकता है।
गोपीनाथ मुंडे महाराष्ट्र के कद्दावर ओबीसी नेता हैं। महाराष्ट्र में पार्टी को खड़ा करने वालों में उनका नाम लिया जाता है। अन्य पिछड़े वर्ग से आने वाले मुंडे को इसी वजह से बीजेपी-शिवसेना की सरकार में उपमुख्यमंत्री भी बनाया गया था। लेकिन अब मुंडे के लिए हालात दुश्वार हो गए हैं। वो सरेआम कह रहे हैं कि पार्टी में लोकतंत्र नहीं बचा है। कुछ लोग किचन कैबिनेट की तरह फैसला ले लेते हैं। कार्यकर्ताओं की नहीं सुनी जा रही है।
दरअसल मुंडे की बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी से कतई नहीं पटती है। महाराष्ट्र में गडकरी को अगड़ों के नेता के तौर पर जाना जाता है। अगड़ों और पिछड़ों की ये लड़ाई बीजेपी में नई नहीं है। पिछड़े वर्ग से ही आने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को भी पार्टी ने बड़े ही नाशुक्राना अंदाज में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। उस वक्त प्रदेश बीजेपी की कमान राजनाथ सिंह संभाल रहे थे।
ऐसे ही जब मध्य प्रदेश में पिछड़ी लोधी कैटेगरी से आने वाली उमा भारती की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी तो पार्टी ने पहले तो उनके पर कतरे लेकिन उनके ना मानने पर उनको भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। लंबे वनवास के बाद हाल में पार्टी में उनकी वापसी हुई। उसी तरह रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान यूपी के ही कद्दावर नेता साक्षी महाराज को भी पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। ये फेहरिश्त और लंबी है जिसमें गंगाचरण राजपूत से लेकर बाबू लाल मरांडी तक का नाम है।
अगड़ी जाति से आने वाले गोविंदाचार्य ने भी जब पार्टी में सोशल इंजीनियरिंग की पैरवी कर पिछड़ों को आगे लाने की हिमायत की थी तो उनको भी पार्टी ने किसी ना किसी बहाने से अपने से दूर भेज दिया। यही हाल गुजरात के नेता शंकर सिंह बाघेला के साथ हुआ और आज वो कहां हैं, ये सबको पता है। बीजेपी ने सत्ता हासिल करने के लिए अपने कई विवादास्पद मुद्दे ठंडे बस्ते में डाल दिए थे लेकिन पार्टी को सभी वर्गों के बीच लोकप्रिय बनाने की कोई बड़ी कवायद नहीं की। ओबीसी और जनाधार वाले नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना बीजेपी को महंगा पड़ सकता है।
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