मनोज जैसवाल : अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम से पैदा हुए जन उभार को देख बेसाख्ता 1974 के जयप्रकाश नारायण आंदोलन की याद आ जाती है। दोनों आंदोलनों में कुछ समानताएं भी हैं। जेपी के नेतृत्व में सड़कों पर उतरकर जनता ने नारा लगाया था सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। वह आकर्षक और रैडिकल नारा तत्कालीन तंत्र को एक चुनौती था। उस नारे के भीतर व्यवस्था-परिवर्तन के लोकतांत्रिक प्रस्ताव थे। अन्ना हजारे का आंदोलन अपनी जबर्दस्त कामयाबी के बावजूद ऐसा कोई नारा देने में असमर्थ रहा है। दरअसल यह सिर्फ एक मुद्दे के इर्द-गिर्द विकसित हुआ आंदोलन है। चूंकि मुद्दा भ्रष्टाचार का है, जिसके निवारण की जरूरत समाज के हर तबके को है, इसलिए इसने आम तौर पर अ-राजनीतिक किस्म के शहरी मध्यवर्ग के मानस को स्पर्श करने में कामयाबी हासिल कर ली है।
दिलचस्प यह है कि अपनी इन मुद्दा आधारित सीमाओं के बावजूद अन्ना हजारे का आंदोलन चुनाव आधारित लोकतंत्र को प्रश्नांकित करने में सफल है। सरकारी ही नहीं, विपक्षी नेताओं को भी इस मुहिम में सीधे भागीदारी करने में इसीलिए हिचक हो रही है। उन्हें लगता है कि चुनाव लड़कर जनता के एकमात्र वैध प्रतिनिधि होने का उनका दावा अन्ना हजारे के कारण शक के घेरे में आ गया है।
इन नेताओं के पास इस बात की सफाई तो है ही नहीं कि सड़कों और रामलीला मैदान में जमा जनता उनके झंडे के तले जमा होने के लिए क्यों तैयार नहीं है। अगर वे ही प्रतिनिधि हैं, तो उनकी जनता उनके साथ क्यों नहीं है? जाहिर है कि फिलहाल उनकी जनता अगले तीन साल तक यानी 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव तक इंतजार करने के लिए तैयार नहीं दिखती। अन्ना के लोग और ‘मैं भी अन्ना’ की लोकप्रिय दावेदारी कह रहा हुं कि जो लोकतंत्र केवल पांच साल में एक बार जनता के पास जानेवाले प्रतिनिधियों तक ही सीमित रहता है, उसमें जनता अपनी उपेक्षा के लिए अभिशप्त होती है। इसलिए प्रतिनिधित्व के सिद्धांत पर पुनर्विचार करना चाहिए। अन्ना आंदोलन का यह आग्रह न केवल तंत्र की बागडोर संभालने वाली ताकतों से है, बल्कि उन सिद्धांतकारों से भी है, जो लोकतंत्र को विस्तार और गहराई देने के लिए चिंतित रहते हैं।
जेपी आंदोलन और अन्ना आंदोलन के बीच एक बड़ा फर्क है। जेपी के समय में संपूर्ण क्रांति आंदोलन के शीर्ष पर संगठित विपक्षी दलों का नेतृत्व था। केवल वामपंथी पार्टियां उसमें शामिल नहीं थीं। इसीलिए वह आंदोलन जाने-अनजाने कांग्रेस को अपदस्थ करने की मुहिम में बदलता चला गया। इस तरह व्यवस्था परिवर्तन के आग्रहों के साथ शुरू हुई वह मुहिम कुल मिलाकर गैर-कांग्रेसवाद के आखिरी उत्कर्ष में बदल गई थी। विपक्षी दलों के सामने एक मौका था, खासकर समाजवादियों के सामने, कि वे उस आंदोलन का लाभ उठा कर चुनाव प्रणाली में सुधार के प्रश्न को हल कर लेते। ध्यान रहे कि जेपी आंदोलन ने प्रतिनिधि वापसी का सिद्धांत अपनाने की अपील भी की थी। लेकिन इस जटिल प्रश्न को सुलझाने के बजाय विपक्षी नेताओं ने कांग्रेस की शैली में सत्ता का भोग मुनासिब समझा और व्यवस्था को बेहतर बनाने का सुनहरा अवसर उनके हाथ से निकल गया।
आज विपक्षी दल अपनी उसी गलती का दंड भोग रहे हैं। कांग्रेस तो कठघरे में खड़ी है ही, उसके पीछे जो सह-अभियुक्त खड़े हैं, उन्हें पहचानने की पहली कोशिश करते ही विपक्ष के गैरकांग्रेसी चेहरों का धुंधलाता हुआ रंग नजर आने लगता है। चाहे 2 जी घोटाला हो, राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर की गई लूट का सवाल हो या कर्नाटक के बेल्लारी में अवैध खनन के जरिये जमा किए गए माल का सवाल, भ्रष्टाचार के हमाम में सब नंगे हैं। इसीलिए अन्ना का आंदोलन एक व्यवस्थागत संकट को संबोधित करता नज़र आ रहा है। जब पक्ष और विपक्ष, दोनों की साख गिर रही हो और जनता सड़कों पर निकलकर दोनों में अपना अविश्वास व्यक्त कर रही हो, तो मान लेना चाहिए कि अब प्रणाली की गहरी मरम्मत का वक्त आ गया है।
इस आंदोलन की प्रकृति चूंकि मुद्दा आधारित है, इसलिए जैसे ही जनलोकपाल के कुछ प्रावधान सरकार मांगेगी और अन्ना के लोग अपनी कुछ मांगें छोड़ेंगे, रामलीला मैदान की भीड़ अपने-अपने घरों की तरफ लौट जाएगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम के राजनीतिक फलितार्थ निश्चित रूप से होंगे। यह भी हो सकता है कि चुनाव जल्दी हो जाए, और यह भी हो सकता है कि यूपीए और एनडीए में से कोई खुलकर इस आंदोलन के समर्थन में आए। अगर ऐसा हुआ, तो एक नया ध्रुवीकरण होगा, जिसके नतीजे के तौर पर एक नया यानी तीसरा मोरचा भी जन्म ले सकता है। हालांकि आज तीसरे मोरचे की राजनीति को प्रोत्साहित करने वाले वामपंथी दल अपनी इच्छाशक्ति खोकर ठंडे पड़े हुए हैं। लेकिन जनता हर अंतराल को भरने की ताकत रखती है। अन्ना के समर्थन में दिखने वाले लोग मुख्य तौर पर दिल्लीवासी और शहरी मध्यवर्ग के ही लगते हैं। पर इस आंदोलन का संदेश कहीं ज्यादा गहराइयों तक जा रहा है। छोटे गांवों और कसबों में भी लोगों ने अपने कान धरती से लगा रखे हैं। उन्हें भी एक नए संदेश का इंतजार है। वे चुनाव में भाग लेकर और फिर पांच साल तक चुप बैठे रहने से आजिज आ चुके हैं। वे मुखर होना चाहते हैं। और यह यथास्थितिवादियों के लिए बुरी खबर है।
दिलचस्प यह है कि अपनी इन मुद्दा आधारित सीमाओं के बावजूद अन्ना हजारे का आंदोलन चुनाव आधारित लोकतंत्र को प्रश्नांकित करने में सफल है। सरकारी ही नहीं, विपक्षी नेताओं को भी इस मुहिम में सीधे भागीदारी करने में इसीलिए हिचक हो रही है। उन्हें लगता है कि चुनाव लड़कर जनता के एकमात्र वैध प्रतिनिधि होने का उनका दावा अन्ना हजारे के कारण शक के घेरे में आ गया है।
इन नेताओं के पास इस बात की सफाई तो है ही नहीं कि सड़कों और रामलीला मैदान में जमा जनता उनके झंडे के तले जमा होने के लिए क्यों तैयार नहीं है। अगर वे ही प्रतिनिधि हैं, तो उनकी जनता उनके साथ क्यों नहीं है? जाहिर है कि फिलहाल उनकी जनता अगले तीन साल तक यानी 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव तक इंतजार करने के लिए तैयार नहीं दिखती। अन्ना के लोग और ‘मैं भी अन्ना’ की लोकप्रिय दावेदारी कह रहा हुं कि जो लोकतंत्र केवल पांच साल में एक बार जनता के पास जानेवाले प्रतिनिधियों तक ही सीमित रहता है, उसमें जनता अपनी उपेक्षा के लिए अभिशप्त होती है। इसलिए प्रतिनिधित्व के सिद्धांत पर पुनर्विचार करना चाहिए। अन्ना आंदोलन का यह आग्रह न केवल तंत्र की बागडोर संभालने वाली ताकतों से है, बल्कि उन सिद्धांतकारों से भी है, जो लोकतंत्र को विस्तार और गहराई देने के लिए चिंतित रहते हैं।
जेपी आंदोलन और अन्ना आंदोलन के बीच एक बड़ा फर्क है। जेपी के समय में संपूर्ण क्रांति आंदोलन के शीर्ष पर संगठित विपक्षी दलों का नेतृत्व था। केवल वामपंथी पार्टियां उसमें शामिल नहीं थीं। इसीलिए वह आंदोलन जाने-अनजाने कांग्रेस को अपदस्थ करने की मुहिम में बदलता चला गया। इस तरह व्यवस्था परिवर्तन के आग्रहों के साथ शुरू हुई वह मुहिम कुल मिलाकर गैर-कांग्रेसवाद के आखिरी उत्कर्ष में बदल गई थी। विपक्षी दलों के सामने एक मौका था, खासकर समाजवादियों के सामने, कि वे उस आंदोलन का लाभ उठा कर चुनाव प्रणाली में सुधार के प्रश्न को हल कर लेते। ध्यान रहे कि जेपी आंदोलन ने प्रतिनिधि वापसी का सिद्धांत अपनाने की अपील भी की थी। लेकिन इस जटिल प्रश्न को सुलझाने के बजाय विपक्षी नेताओं ने कांग्रेस की शैली में सत्ता का भोग मुनासिब समझा और व्यवस्था को बेहतर बनाने का सुनहरा अवसर उनके हाथ से निकल गया।
आज विपक्षी दल अपनी उसी गलती का दंड भोग रहे हैं। कांग्रेस तो कठघरे में खड़ी है ही, उसके पीछे जो सह-अभियुक्त खड़े हैं, उन्हें पहचानने की पहली कोशिश करते ही विपक्ष के गैरकांग्रेसी चेहरों का धुंधलाता हुआ रंग नजर आने लगता है। चाहे 2 जी घोटाला हो, राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर की गई लूट का सवाल हो या कर्नाटक के बेल्लारी में अवैध खनन के जरिये जमा किए गए माल का सवाल, भ्रष्टाचार के हमाम में सब नंगे हैं। इसीलिए अन्ना का आंदोलन एक व्यवस्थागत संकट को संबोधित करता नज़र आ रहा है। जब पक्ष और विपक्ष, दोनों की साख गिर रही हो और जनता सड़कों पर निकलकर दोनों में अपना अविश्वास व्यक्त कर रही हो, तो मान लेना चाहिए कि अब प्रणाली की गहरी मरम्मत का वक्त आ गया है।
इस आंदोलन की प्रकृति चूंकि मुद्दा आधारित है, इसलिए जैसे ही जनलोकपाल के कुछ प्रावधान सरकार मांगेगी और अन्ना के लोग अपनी कुछ मांगें छोड़ेंगे, रामलीला मैदान की भीड़ अपने-अपने घरों की तरफ लौट जाएगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम के राजनीतिक फलितार्थ निश्चित रूप से होंगे। यह भी हो सकता है कि चुनाव जल्दी हो जाए, और यह भी हो सकता है कि यूपीए और एनडीए में से कोई खुलकर इस आंदोलन के समर्थन में आए। अगर ऐसा हुआ, तो एक नया ध्रुवीकरण होगा, जिसके नतीजे के तौर पर एक नया यानी तीसरा मोरचा भी जन्म ले सकता है। हालांकि आज तीसरे मोरचे की राजनीति को प्रोत्साहित करने वाले वामपंथी दल अपनी इच्छाशक्ति खोकर ठंडे पड़े हुए हैं। लेकिन जनता हर अंतराल को भरने की ताकत रखती है। अन्ना के समर्थन में दिखने वाले लोग मुख्य तौर पर दिल्लीवासी और शहरी मध्यवर्ग के ही लगते हैं। पर इस आंदोलन का संदेश कहीं ज्यादा गहराइयों तक जा रहा है। छोटे गांवों और कसबों में भी लोगों ने अपने कान धरती से लगा रखे हैं। उन्हें भी एक नए संदेश का इंतजार है। वे चुनाव में भाग लेकर और फिर पांच साल तक चुप बैठे रहने से आजिज आ चुके हैं। वे मुखर होना चाहते हैं। और यह यथास्थितिवादियों के लिए बुरी खबर है।
सुन्दर लेख
ReplyDeleteशानदार आलेख
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