मनोज जैसवाल : एक वक्त में एक सरकार के लिए जितनी मूर्खताएं संभव थीं, मनमोहन सरकार ने वह सब कर लीं! एक मुद्दे पर जोर देने के क्रम में जितने आग्रह संभव थे, अन्ना हजारे और उनके साथियों ने वह सब कर लिया। अब एक रामलीला मैदान में अनशन पर बैठने की तैयारी में है और दूसरा रामलीला मैदान के आगे दम साधे खड़ा है। हिसाब यह लगाया जा रहा है कि पिछले दिनों की रस्साकशी में कौन जीता और कौन हारा? जीत-हार की भाषा से जो लोग कुछ जानते समझते नहीं हैं, उनकी तो क्या कहें, लेकिन यह कहना जरूरी है कि गांधी के रास्ते की लड़ाई में कोई जीतता और कोई हारता नहीं है। उसमें होता है, व्यक्ति और समाज का जागरण! हमें मानना चाहिए कि अन्ना के आंदोलन से सरकार का विवेक कुछ हद तक ही सही, जागा है। वह अपनी मर्यादाएं भी समझ रही है और कर्तव्य भी। हम किसी सरकार से इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं कर सकते। सरकार नाम की संस्था का चरित्र होता ही ऐसा है।
अब सवाल है कि आगे का रास्ता क्या है? अन्ना जितना लंबा खींच सकेंगे, अपना अनशन उतना लंबा खींच ले जाएंगे तो भी होगा क्या? अनशन से आगे निकल कर रास्ते तो बनाने होंगे। सरकार भी इस सवाल से मुंह फेर नहीं सकती है, क्योंकि अनशन जितना लंबा खिंचेगा, उसकी साख उतनी ही गिरेगी। आखिर तो उसे इसी जनता के बीच वोट मांगने जाना है। इस मामले को सुलटाने में जितनी देर होगी, वोट उससे उतनी ही दूर होते जाएंगे। और यह हम सबकी चिंता का विषय है कि आपाधापी की ऐसी स्थिति का फायदा उठाने में कहीं वे लोग सफल न हो जाएं, जो भ्रष्टाचार के सवाल पर तो इनकी ही तरह पतनशील हैं, लेकिन भारतीय समाज की संरचना को समझने और उसे पुख्ता करने के सवाल पर खतरनाक विचारधारा के साथ जुड़े हैं।
सरकार और कांग्रेस पार्टी को इस अनुभव से सबक लेना चाहिए कि देश वकीली तर्कों से, कानून की धाराएं दिखाने से और पुलिसिया ताकत से डराने से न तो चलते हैं और न चलाए जाने चाहिए। जब भी ऐसी स्थिति पैदा हो, तभी सरकार को भी समझ लेना चाहिए कि वह विफल हो रही है। ऐसे में उसके सामने दो ही रास्ते बचते हैं- वह रास्ता बदले या फिर रास्ता छोड़ दे। लोकतंत्र की यह नई लक्ष्मण-रेखा है, जिसे किसी भी सरकार को पार नहीं करना चाहिए।
लोकपाल की व्यवस्था भ्रष्टाचार से लड़ने का रामबाण नहीं है। कोई एक व्यवस्था ऐसी हो ही नहीं सकती। जन लोकपाल की सारी हिदायतें भी हम इसमें जोड़ लें, तो भी यह आखिरी और परिपूर्ण उपाय नहीं हो सकता है। तो सवाल उठता है कि क्या हमारे संविधान ने जितने तरह की लोकतांत्रिक संस्थाएं खड़ी की हैं, उनमें से कोई भी परिपूर्ण है? जिस संसद की सर्वोच्चता की डींग हांकी जा रही है, क्या वह अपूर्ण नहीं है? क्या वह पद, पैसा और अधिकार की अंधी होड़ में लगे लोगों की जमात के हाथों बंधक नहीं रह गई है? क्या वहां से किसी अन्ना हजारे को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया जा सकता है?
अभी एक रास्ता यह हो सकता है कि जन लोकपाल और सरकार के लोकपाल, दोनों का मसविदा किसी नई तटस्थ समिति को सौंपा जाए और वह इन सबका अध्ययन कर एक नया मसविदा बनाकर देश के सामने रखे। इस नए मसविदे को संसद में पेश किया जाए। अब इसे जन लोकपाल कहें या भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाला सख्त बिल कहें, यदि इसके लिए जो जनमत पूरे देश में बना है, उसे भूल कर संसद कुछ भी करने की कोशिश करेगी, तो वह अपनी ही नाक कटाएगी।
भारतीय संविधान की संरचना और लोकतंत्र की आत्मा के बारे में थोड़ी भी समझ रखने वाला हर व्यक्ति यह जानता है कि भारतीय संविधान ने लोकतंत्र को चलाने वाली जितनी भी संस्थाएं रची हैं, उनमें से सभी अपने-अपने दायरे में सर्वोपरि हैं। लेकिन ये परस्परावलंबित भी हैं। अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखा से बाहर निकलने पर ये एक दूसरे को अनुशासित भी करती हैं। हमारी राजनीतिक व्यवस्था के बारे में, उससे जुड़े व्यक्तियों के बारे में आम तौर पर जो देशव्यापी भावना है, वह किसी से छिपी नहीं। इसलिए संसद लोकपाल की व्यवस्था का जो भी स्वरूप बनाए, उसे याद रखना ही होगा कि उसकी असली कसौटी जनता के बीच होगी। वह आज की जनभावना को स्वीकार्य होगी, तो देश का राजनीतिक तंत्र एक कदम आगे बढ़ेगा। स्वीकार्य नहीं होगी तो आज का असंतोष ज्यादा विकराल होकर हमारे सामने प्रकट होगा।
टीम अन्ना को भी समझना होगा कि व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के बिना जन लोकपाल आदि पैबंद से ज्यादा कुछ नहीं हैं। पैबंद से आप पुराने कपड़े को कुछ ज्यादा वक्त तक चला सकते हैं, लेकिन पैबंद लगने का मतलब ही है कि नए कपड़े की जरूरत आ गई है। इसलिए यह जो उभार आया है, इसे जीवित रखना जरूरी है और इसे प्रशिक्षित करना जरूरी है। इसके लिए धरना-उपवास से आगे निकलकर गांव-गांव शहर-शहर जाना होगा।
सरकार मुंह बंद करे और तेजी से इस दिशा में काम करे। अन्ना अपने साथियों को रामलीला मैदान से समेटकर देश भर में एक दूसरी लीला के लिए भेजें, तो रास्ता बनता है। सत्ता बदलने वाले छोटी लड़ाइयां ही लड़ते हैं, व्यवस्था बदलने वालों को लंबी और कठिन लड़ाई लड़नी पड़ती है। गांधी, जयप्रकाश को यही करना पड़ा था। अन्ना ने देश को इस संभावना के आगे खड़ा कर भगीरथ काम किया है
आलेख कुमार प्रशांत जी से प्रेरित
अब सवाल है कि आगे का रास्ता क्या है? अन्ना जितना लंबा खींच सकेंगे, अपना अनशन उतना लंबा खींच ले जाएंगे तो भी होगा क्या? अनशन से आगे निकल कर रास्ते तो बनाने होंगे। सरकार भी इस सवाल से मुंह फेर नहीं सकती है, क्योंकि अनशन जितना लंबा खिंचेगा, उसकी साख उतनी ही गिरेगी। आखिर तो उसे इसी जनता के बीच वोट मांगने जाना है। इस मामले को सुलटाने में जितनी देर होगी, वोट उससे उतनी ही दूर होते जाएंगे। और यह हम सबकी चिंता का विषय है कि आपाधापी की ऐसी स्थिति का फायदा उठाने में कहीं वे लोग सफल न हो जाएं, जो भ्रष्टाचार के सवाल पर तो इनकी ही तरह पतनशील हैं, लेकिन भारतीय समाज की संरचना को समझने और उसे पुख्ता करने के सवाल पर खतरनाक विचारधारा के साथ जुड़े हैं।
सरकार और कांग्रेस पार्टी को इस अनुभव से सबक लेना चाहिए कि देश वकीली तर्कों से, कानून की धाराएं दिखाने से और पुलिसिया ताकत से डराने से न तो चलते हैं और न चलाए जाने चाहिए। जब भी ऐसी स्थिति पैदा हो, तभी सरकार को भी समझ लेना चाहिए कि वह विफल हो रही है। ऐसे में उसके सामने दो ही रास्ते बचते हैं- वह रास्ता बदले या फिर रास्ता छोड़ दे। लोकतंत्र की यह नई लक्ष्मण-रेखा है, जिसे किसी भी सरकार को पार नहीं करना चाहिए।
लोकपाल की व्यवस्था भ्रष्टाचार से लड़ने का रामबाण नहीं है। कोई एक व्यवस्था ऐसी हो ही नहीं सकती। जन लोकपाल की सारी हिदायतें भी हम इसमें जोड़ लें, तो भी यह आखिरी और परिपूर्ण उपाय नहीं हो सकता है। तो सवाल उठता है कि क्या हमारे संविधान ने जितने तरह की लोकतांत्रिक संस्थाएं खड़ी की हैं, उनमें से कोई भी परिपूर्ण है? जिस संसद की सर्वोच्चता की डींग हांकी जा रही है, क्या वह अपूर्ण नहीं है? क्या वह पद, पैसा और अधिकार की अंधी होड़ में लगे लोगों की जमात के हाथों बंधक नहीं रह गई है? क्या वहां से किसी अन्ना हजारे को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया जा सकता है?
अभी एक रास्ता यह हो सकता है कि जन लोकपाल और सरकार के लोकपाल, दोनों का मसविदा किसी नई तटस्थ समिति को सौंपा जाए और वह इन सबका अध्ययन कर एक नया मसविदा बनाकर देश के सामने रखे। इस नए मसविदे को संसद में पेश किया जाए। अब इसे जन लोकपाल कहें या भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाला सख्त बिल कहें, यदि इसके लिए जो जनमत पूरे देश में बना है, उसे भूल कर संसद कुछ भी करने की कोशिश करेगी, तो वह अपनी ही नाक कटाएगी।
भारतीय संविधान की संरचना और लोकतंत्र की आत्मा के बारे में थोड़ी भी समझ रखने वाला हर व्यक्ति यह जानता है कि भारतीय संविधान ने लोकतंत्र को चलाने वाली जितनी भी संस्थाएं रची हैं, उनमें से सभी अपने-अपने दायरे में सर्वोपरि हैं। लेकिन ये परस्परावलंबित भी हैं। अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखा से बाहर निकलने पर ये एक दूसरे को अनुशासित भी करती हैं। हमारी राजनीतिक व्यवस्था के बारे में, उससे जुड़े व्यक्तियों के बारे में आम तौर पर जो देशव्यापी भावना है, वह किसी से छिपी नहीं। इसलिए संसद लोकपाल की व्यवस्था का जो भी स्वरूप बनाए, उसे याद रखना ही होगा कि उसकी असली कसौटी जनता के बीच होगी। वह आज की जनभावना को स्वीकार्य होगी, तो देश का राजनीतिक तंत्र एक कदम आगे बढ़ेगा। स्वीकार्य नहीं होगी तो आज का असंतोष ज्यादा विकराल होकर हमारे सामने प्रकट होगा।
टीम अन्ना को भी समझना होगा कि व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के बिना जन लोकपाल आदि पैबंद से ज्यादा कुछ नहीं हैं। पैबंद से आप पुराने कपड़े को कुछ ज्यादा वक्त तक चला सकते हैं, लेकिन पैबंद लगने का मतलब ही है कि नए कपड़े की जरूरत आ गई है। इसलिए यह जो उभार आया है, इसे जीवित रखना जरूरी है और इसे प्रशिक्षित करना जरूरी है। इसके लिए धरना-उपवास से आगे निकलकर गांव-गांव शहर-शहर जाना होगा।
सरकार मुंह बंद करे और तेजी से इस दिशा में काम करे। अन्ना अपने साथियों को रामलीला मैदान से समेटकर देश भर में एक दूसरी लीला के लिए भेजें, तो रास्ता बनता है। सत्ता बदलने वाले छोटी लड़ाइयां ही लड़ते हैं, व्यवस्था बदलने वालों को लंबी और कठिन लड़ाई लड़नी पड़ती है। गांधी, जयप्रकाश को यही करना पड़ा था। अन्ना ने देश को इस संभावना के आगे खड़ा कर भगीरथ काम किया है
आलेख कुमार प्रशांत जी से प्रेरित
nice post
ReplyDeleteव्यवस्था बदलने वालों को लंबी और कठिन लड़ाई लड़नी पड़ती है
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