मनोज जैसवाल : केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम के कार्यकाल में देश कम से कम आठ धमाके झेल चुका है। जानकारों की राय में बार-बार ऐसी घटनाओं का सबसे बड़ा कारण यही है कि सरकार कोई सबक नहीं लेती, विपक्ष भी हर हमले के कुछ दिन बाद मामला भुला देता है। ऐसे में बेचारी जनता बेबस, आतंक झेलने के लिए मजबूर बनी रहती है।
देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर 18 साल पहले 1993 में पहला बड़ा आतंकवादी हमला हुआ था। इसके बाद से अकेले मुंबई में करीब 10 आतंकी हमले हो चुके हैं, जिनमें 700 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। हर हमलों के बाद जांच शुरू होती है। कुछ मामलों में दोषी करार दिए जाने के बावजूद उस शख्स को सजा नहीं मिलती। मुंबई हमलों का दोषी अजमल आमिर कसाब और संसद पर हुए आतंकी हमले (2001) में फांसी की सजा पा चुका अफजल गुरू तो दो मिसाल भर हैं।
इसके उलट, अमेरिका का उदाहरण हमारे सामने है। दुनिया का ‘सुपरपावर’ कहे जाने वाले अमेरिका पर 11 सितंबर 2001 को भीषण आतंकवादी हमला हुआ था। उसके बाद भी वहां आतंकियों ने कई बार हमले की कोशिश की, लेकिन सरकार ने हर बार समय रहते उन्हें बेनकाब किया। ‘हेरिटेज फाउंडेशन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 11 सितंबर को हुए आतंकी हमलों के बाद अमेरिकी सुरक्षा तंत्र ने अमेरिका के खिलाफ 39 आतंकी हमलों की साजिश को नाकाम किया है। इनमें 11 अकेले न्यूयॉर्क पर होने वाले थे।
आतंक के खिलाफ जंग
9/11 के बाद अमेरिका की तस्वीर ही बदल गई थी। पुलिस और पूरे सुरक्षा तंत्र का चेहरा बदल दिया गया। सुरक्षा के नाम पर कई मुश्किल (जिनसे जनता को परेशानी भी हुई) नियम लागू किए गए। हमले के तुरंत आतंक के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया गया और 10 साल बाद अमेरिका के गुनहगार ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में घुसकर मार भी गिराया। इसके उलट, भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बुधवार को दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर हुए धमाके के बाद कहा कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध लंबा है। प्रधानमंत्री का यह बयान तब है, जब भारत 20 साल से लगातार आतंकवादी हमले झेल रहा है.
भारत में मुश्किल है, पर नामुमकिन नहीं
9/11 के बाद अमेरिका में सुरक्षा के लिहाज से जो कड़े प्रावधान लागू किए गए, वैसे नियम भारत में भी लागू हो सकते हैं। जरूरी है सरकार की इच्छाशक्ति और जनता का त्याग के लिए तैयार रहना। अमेरिका जैसे नियम लागू किए गए तो यहां जनता को कई ऐसी परेशानियां झेलनी पड़ सकती हैं, जिसकी वह अभ्यस्त नहीं है। उसे हमेशा अपने साथ पहचान पत्र लेकर चलना पड़ सकता है और कहीं भी मांगे जाने पर सुरक्षा बलों को दिखाना पड़ सकता है। मॉल, सिनेमाघरों, पार्किंग, स्टेशन आदि सार्वजनिक जगहों पर उसे कतार में कई मिनट तक खड़े रह कर अपनी बारी का इंतजार करना पड़ सकता है। हो सकता है कि कुछ खास इलाकों (जैसे दिल्ली में कनॉट प्लेस) में निजी वाहनों के प्रवेश पर पाबंदी झेलनी पड़े और सार्वजनिक वाहनों से ही आवाजाही करनी पड़े।
चुनौती
अमेरिका की तुलना में भारत की आबादी कहीं ज्यादा है, लोग कम जागरूक हैं, बुनियादी ढांचे की कमी है और पैसे की भी समस्या है। बड़ी आबादी के मद्देनजर सुरक्षा संबंधी इंतजामों के लिए काफी पैसों की जरूरत पड़ेगी। सो, यहां जनता को सुरक्षित रहने की आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ेगी। हालांकि इस बात की संभावना कम ही है कि जनता यह कीमत चुकाने को तैयार नहीं होगी, पर सबसे बड़ी समस्या नेताओं और सरकारी तंत्र की इच्छाशक्ति की है।
दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर हुए सात सितंबर को बम धमाके में भी यही कमी सामने आई। तीन महीने पहले एक धमाका होने के बावजूद हाई कोर्ट के दरवाजों पर सीसीटीवी नहीं लगाए जा सके। मेटल डिटेक्टर लगा है तो काम ही नहीं कर रहा। मुंबई हमले के बाद सुरक्षा संबंधी तैयारियों की बड़ी-बड़ी घोषणाएं की गईं, लेकिन उन पर अमल का हाल बुरा है। यहां तक कि समुद्री सीमा की सुरक्षा के लिए खरीदे गए बोट को चलाने के लिए ईंधन का इंतजाम नहीं हो पा रहा है।
सरकार की प्राथमिकता में जनता की सुरक्षा का मामला काफी नीचे दबा लगता है। विपक्षी पार्टियां भी इसे जोर-शोर से नहीं उठातीं। किसी आतंकी हमले के तत्काल बाद तो वे शोरशराबा करती हैं, लेकिन मामला ठंडा पड़ते ही वे भी दूसरे मुद्दों को पकड़ लेती हैं। ऐसे में जनता की आवाज और जरूरत दबी की दबी रह जाती है।
विशेषज्ञों की सोच
सरकार हर धमाके के बाद मुआवजे का ऐलान कर छुट्टी पा लेती है। सुरक्षा को लेकर उसका नजरिया बहुत ही चलताऊ है। अभी कुछ ही दिन पहले मुंबई की समुद्री सीमा में एक जहाज आ गया, लेकिन गृह मंत्री कहते हैं कि यह सुरक्षा में सेंध नहीं है। तो क्या जब वे नॉर्थ ब्लॉक पहुंच जाएंगे, तभी हम मानेंगे की हमारी सुरक्षा भेदी गई है। ऐसा रवैया रहा तो लोगों में गुस्सा भड़कने का भी खतरा बना रहेगा।
भरत वर्मा , सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ
आतंकवाद को रोकने में हर एक को भागीदार बनाना होगा। प्रत्येक पुलिस वाले, प्रधान, चुने गए प्रतिनिधि और हर उस शख्स को जिसका इससे संबंध हो। इसके लिए जरूरी हो कि हमारे पास ऐसा नेतृत्व हो जिस पर हम भरोसा कर सकें। अहम पदों पर हमें ऐसे लोगों को बैठाना होगा, जिनके लिए सरकार में सेवा करने का कोई बड़ा मकसद हो, न कि उनका मकसद केवल लेनदेन तक सीमित हो। इस बार जब तक गुनहगार को सजा नहीं मिल जाता तब तक हम सबको चैन से नहीं बैठना चाहिए।
किरण बेदी, देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी
देल्ली में आतंकी विस्फोट हमारी न्यायपालिका (जिसने गुनहगारों को सजा दी है) पर सुनियोजित हमला है। ऐसी घटनाएं (आतंकी हमले) बहुत ज़्यादा हो रही हैं और हम इन्हें अंजाम देने वालों को पकड़ नहीं पा रहे हैं। यह जरूरी हो गया है कि समाज में खोया हुआ भरोसा बहाल किया जाए।
यह लोग कायर है. बेगुनाहों की जान लेना कहा की बहादुरी है.
ReplyDeleteसुन्दर आलेख मनोज जी
ReplyDeleteबेगुनाहों की जान लेना कहा की बहादुरी है.
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