मनोज जैसवाल : कितना बुरा हाल है हिंदी मीडिया का. अमर उजाला के मालिक के खिलाफ सीबीआई ने चार्जशीट दायर कर दी, और इसकी खबर सभी हिंदी अखबार और न्यूज चैनल पी गए. किसी अखबार में एक लाइन नहीं. अगर कहीं भूले भटके होगी भी तो उसमें अमर उजाला और अतुल माहेश्वरी का नाम न होगा. इंटरनेट पर गूगल व याहू के न्यूज सेक्शन में जब सीबीआई, अंकुर चावला, अतुल माहेश्वरी, चार्जशीट आदि हिंदी शब्दों के जरिए खबरों को तलाशा गया तो कोई रिजल्ट न आया.
पर जब अंग्रेजी में atul maheshwari लिखकर गूगल के न्यूज सेक्शन में सर्च किया गया तो चार रिजल्ट आए. टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और कुछ अन्य इंग्लिश वेबसाइट्स पर सीबीआई चार्जशीट वाली खबर प्रकाशित है. अंग्रेजी वालों ने प्रकाशित तो किया. भले ही दबा कर, बचा कर, लेकिन हिंदी वाले तो पूरी की पूरी खबर पी गए. यही चार्जशीट अगर किसी गैर मीडिया शख्सियत के खिलाफ दाखिल हुई होती तो हिंदी अखबार वाले मूल खबर के साथ एक अलग से विशेष पेज प्रकाशित करते जिसमें विस्तार से जिक्र होता कि अपराध क्या है, कब हुआ, कैसे हुआ, कौन-कौन फंसा, सीबीआई पर कहां कहां से दबाव पड़े और जो लोग फंसे हैं उनकी अतीत क्या रहा है.... आदि इत्यादि. लेकिन मीडिया वाले जब खुद नंगई (रिश्वत दिलवाना, देना, जज को पटाना, दूसरे का हिस्सा हड़पने की कोशिश करना... ये सब नंगई ही तो है) करते हुए पकड़े जाते हैं तो सबके सब एक साथ चुप्पी साध लेते हैं.
इन मीडिया हाउसों के पैसे से चलने वाली मीडिया वेबसाइट्स भी चुप्पी साध लेती हैं क्योंकि मीडिया वेबसाइट्स का मतलब ही है मीडिया हाउसों का पीआर करना, अच्छी अच्छी खबरें छापने, ब्रांड बिल्डिंग के लिए सफलता की छोटी खबर को बढ़ा चढ़ा कर पेश करना, भ्रष्ट और अनैतिक मालिकों को हीरो की तरह पेश करना. पर भास्कर घराने का अंदरुनी विवाद रहा हो या अमर उजाला का इस ब्लॉग ने इस प्रकरण को बिना डरे, बिना हिचके लगातार प्रकाशित किया और डंके की चोट पर प्रकाशित किया. बहुत से बड़े नामों के खिलाफ खबरें आईं तो उन्हें भी प्रकाशित किया गया. इन खबरों को रोकने के लिए कई तरह के दबाव आए पर इस ब्लॉग ने कभी किसी से कोई समझौता नहीं किया.
पर सवाल यही है कि क्या ऐसी खबरें छापने का ठेका सिर्फ इस ब्लॉग के पास है. उस ब्लॉग के पास जो व्यवस्थित व संगठित उपक्रम नहीं है, जो संसाधन विहीन, बाजार विरोधी है. धारा के खिलाफ, पूंजी के खिलाफ, बाजार के खिलाफ चलने, तैरने, बोलने का कोई भी भावुक जज्बा देर तक कायम नहीं रहता. इसका अंत होता है, देर-सबेर. तो फिर क्या मान लिया जाए कि इस देश में अखबारों, न्यूज चैनलों के जरिए प्रायोजित सच, आंशिक सच, बाजार-सत्ता हितैषी सच ही जन-मानस तक पहुंच पाएगा, बाकि सचों का गला मुंबई-दिल्ली के मीडिया सेठों की कोठियों के पिछवाड़े बने सरवेंट क्वार्टर में घोंट दिया जाएगा ताकि सच को गरीब बताकर उसकी जवान मौत को जांच का विषय बनने से रोका जा सके,आम जनता सच जान ही नहीं पाती,जब मीडिया विशेष कर हिंदी बाले हिंदी के खिलाफ काम कर रहे हों तो.
लेख आपका मजेदार है
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