चर्चा है कि नैनो फ्लॉप हो गई है। हालांकि टाटा मोटर्स का दावा है कि नैनो को जितना बनना और बिकना चाहिए था, उतना हो रहा है, लेकिन मीडिया में ऐसी खबरों की भरमार है कि नैनो के लिए ऑर्डर इतने कम आ रहे हैं कि टाटा और उसके वेंडर्स चिंतित हैं।
हाल में नैनो की वॉरंटी बढ़ाए जाने और किफायती लोन ऑफर को मिसाल के तौर पर पेश किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि कम-से-कम नैनो को लेकर मार्केट में वैसा रेस्पॉन्स तो नहीं ही है, जिसकी उम्मीद की जाती थी।
नैनो जब लॉन्च हुई थी, तो जबर्दस्त शोर मचा था - दोनों तरफ से। मीडिया में इस कार को जितनी तवज्जो मिली, उतनी किसी मर्सडीज़ को भी कभी नहीं मिली होगी। दुनिया भर में इसे ऑटोमोबाइल के इतिहास में एक चमत्कार की तरह देखा गया।
हाल में नैनो की वॉरंटी बढ़ाए जाने और किफायती लोन ऑफर को मिसाल के तौर पर पेश किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि कम-से-कम नैनो को लेकर मार्केट में वैसा रेस्पॉन्स तो नहीं ही है, जिसकी उम्मीद की जाती थी।
नैनो जब लॉन्च हुई थी, तो जबर्दस्त शोर मचा था - दोनों तरफ से। मीडिया में इस कार को जितनी तवज्जो मिली, उतनी किसी मर्सडीज़ को भी कभी नहीं मिली होगी। दुनिया भर में इसे ऑटोमोबाइल के इतिहास में एक चमत्कार की तरह देखा गया।
यह दुनिया की सबसे सस्ती कंप्लीट कार थी और इसे तैयार करने की इंजिनियरिंग काबिलियत और एक फायदेमंद प्रॉडक्ट में बदलने की बिजनेस महारत किसी चीनी, कोरियाई या जापानी ने नहीं, उस भारतीय कंपनी ने दिखाई थी, जिसे ट्रक मेकर के तौर पर ज्यादा जाना जाता है।
दुनिया ने नैनो को गहरी तारीफ और उतने ही भारी संदेह से देखा, लेकिन रतन टाटा ने एक अडिग यकीन के साथ ऐलान किया कि वे आम भारतीयों का सपना पूरा करके ही दम लेने वाले हैं। आज करीब एक साल बाद नैनो जहां है, वहां से आगे कौन-सी रोड जाती है।
मैं नैनो का प्रशंसक रहा हूं और जब मैंने इसी कॉलम में इस पर लिखा तो अपनी भावनाओं को बहने दिया था। आज भी मुझे नैनो नाम के करिश्मे और इससे दुनिया भर में भारत को मिली इज्जत पर फख्र है। मैं तहेदिल से चाहता हूं कि यह चमत्कार बाजार में भी कामयाब हो, लेकिन अगर ऐसा नहीं हो रहा, तो टाटा मोटर्स की बैलेंस शीट का जो भी हो, इंडियन टैलंट पर मेरा यकीन जरा भी कम नहीं होता।
दुनिया ने नैनो को गहरी तारीफ और उतने ही भारी संदेह से देखा, लेकिन रतन टाटा ने एक अडिग यकीन के साथ ऐलान किया कि वे आम भारतीयों का सपना पूरा करके ही दम लेने वाले हैं। आज करीब एक साल बाद नैनो जहां है, वहां से आगे कौन-सी रोड जाती है।
मैं नैनो का प्रशंसक रहा हूं और जब मैंने इसी कॉलम में इस पर लिखा तो अपनी भावनाओं को बहने दिया था। आज भी मुझे नैनो नाम के करिश्मे और इससे दुनिया भर में भारत को मिली इज्जत पर फख्र है। मैं तहेदिल से चाहता हूं कि यह चमत्कार बाजार में भी कामयाब हो, लेकिन अगर ऐसा नहीं हो रहा, तो टाटा मोटर्स की बैलेंस शीट का जो भी हो, इंडियन टैलंट पर मेरा यकीन जरा भी कम नहीं होता।
और ऐसा ही मैं समझता हूं, दुनिया का भी खयाल होगा। लेकिन इससे भी आगे मैं मानता हूं कि नैनो को जमीन पर उतारकर अपनी काबिलियत का जैसा ऐलान भारत ने किया था, उससे भी बड़ा पॉइंट अब नैनो के खराब मार्केट परफॉर्मेंस ने स्कोर किया है।
आम भारतीय नैनो नहीं खरीद रहा, क्योंकि अब उसे इसकी जरूरत नहीं रही। कार हमेशा से हर इंसान की चाहत रही है और भारतीय भी कारों से बेइंतहा मुहब्बत करते हैं, लेकिन उनका सपना अब अपग्रेड हो चुका है। माफ कीजिए, यह जानने में रतन टाटा जैसे विजनरी से भी चूक हो गई कि हर पांच-दस साल में हमें अपनी ख्वाहिशें री-बूट करनी होती हैं। नैनो का ख्वाब करीब 15 साल पहले आया होगा और वही इसका वक्त था।
रतन टाटा ने कहा था कि एक बरसाती दिन में मैंने एक परिवार को स्कूटर पर जाते देखा और सोचा कि यह ठीक नहीं है, एक ऐसी कार होनी चाहिए, जिसे सभी अफोर्ड कर सकें। नैनो वह कार थी। लेकिन जब तक वह शोरूम में पहुंची, अफोर्ड करने की भारत की ताकत कई गुना बढ़ चुकी थी।
नैनो के उदय के आसपास भारत की तब तक की सबसे सस्ती कार मारुति 800 के दिन पूरे होने लगे थे। ऑल्टो उससे ज्यादा खरीदी जाने लगी थी और जल्द ही 800 को मेट्रो शहरों से आउट होकर छोटे कस्बों में अपनी आखिरी सांसें गिनने के लिए रुखसत कर दिया जाना था। कार बाजार के दूसरे सिरे में एक-के-बाद एक महंगे ग्लोबल ब्रैंड भारत आ रहे थे, सेडान की बिक्री भी बढ़ रही थी और हैचबैक में भी नैनो तो क्या, 800 से रेस लगाने में किसी की दिलचस्पी नहीं दिख रही थी।
नैनो के जरिए अब हम भारत के उस बदलते रुझान को देख पा रहे हैं, जो दरअसल उसकी बढ़ती ताकत की झलक है। यह ताकत ज्यादा बड़े सपने देखने और उन्हें पूरा करने के हौसले और काबिलियत की है। एक औसत भारतीय आज इतना जुटा पा रहा है, जितना उसके पुरखों ने कभी सोचा भी नहीं होगा।
घर और गाड़ी के लिए अब एक भारतीय को रिटायरमेंट या पीएफ के पैसे का इंतजार नहीं करना पड़ता। यंग प्रफेशनल्स जिधर भी मुड़ते हैं, बाजार में हंगामा हो जाता है। मैं समझता हूं कि सदियों पहले कभी भारत में आमदनी और खर्च का ऐसा माहौल रहा होगा।
मैं जानता हूं, यह पढ़ने तक कई पाठकों को परेशानी होने लगी होगी। वे पूछना चाहेंगे - किस भारत की बात कर रहे हैं आप? क्या आपको उस 80 फीसदी आबादी के बारे में कुछ पता है, जो आज भी अपनी दुश्वारियों में जी रही है?
भारत गहरी असमानताओं का देश है, यह मैं जानता हूं और आमतौर पर हम शहरी भारत की बात करके किस्सा खत्म कर लिया करते हैं। लेकिन नैनो जैसी मिसालें इस भेद से परे जाती हैं। इस बात का अहसास टाटा को रहा होगा कि नैनो मेट्रो की सवारी नहीं होगी, उसे ठिकाना दूसरे भारत में ही मिलेगा।
लेकिन अब हम देख रहे हैं कि दूसरा भारत भी उसे लेकर उत्साहित नहीं है। एक समय साइकल और उसके बाद स्कूटर से किसी की हैसियत तय हो जाती थी। आज भी करोड़ों लोग हैं, जिनके पास स्कूटर या बाइक होंगी। वे एक झटके से नैनो पर अपग्रेड हो सकते हैं, लेकिन नहीं हो रहे क्यों?
क्योंकि वे किसी समझौते के लिए तैयार नहीं हैं। एक साइकल और एक स्कूटर आपको साइकल या स्कूटर क्लास में फुल मेंबरशिप दिलाते हैं, नैनो आपको कार क्लास में आधे रास्ते पर छोड़ देती है। भारत के कम आय वाले लोग भी अपने सपने के मामले में आज एक अधूरे सफर के लिए तैयार नहीं हैं।
वे अपने मौजूदा क्लास में बने रहेंगे और नए क्लास में फुल मेंबरशिप के लिए इंतजार कर लेंगे, क्योंकि उन्हें यकीन है कि उनका दिन आएगा। अगर यह भरोसा नहीं होता तो वे कैसी भी सवारी पकड़कर मुकाम तक पहुंचने के जुगाड़ में होते।
भारत के इस हौसले, इस यकीन, इस जिद को जान पाने के लिए हमें नैनो का शुक्रगुजार होना चाहिए। उस नन्ही कार का, जिसने भारत के बनते-बदलते सपनों को एक ही गियर में नाप लेने का बेमिसाल दर्जा हासिल कर लिया है। manojjaiswalpbt@gmail.com
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