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फैंटम - बलशाली, मौत को जीत लेने वाला, चलता-फिरता प्रेत - ऐसा इंसान था, जो बीहड़ वन के मिथकों में अमर हो चला था। आदम और ईव के स्वर्ग जैसे अपने कुदरती राज्य को आधुनिक लालच की गंदी चालों से बचाता हुआ। इसके उलट बांके मैंड्रेक और छबीली नारडा ने आधुनिकता के बीच अपना स्वर्ग गढ़ लिया था - जनाडू, जहां सुख की दुनिया बसी था। हर कहानी की शुरुआत में आप मैंड्रेक और लोथार दम्पत्ति को पूल के किनारे अधनंगे पड़े निहार सकते थे। जनाडू का वैभव और बीहड़ वन की फुसफुसाहटें - इससे ज्यादा और क्या चाहिए था?
इंद्रजाल कॉमिक्स ने बाद में छपना बंद कर दिया। हिंदी में फिर उस तरह से इंटरनैशनल कॉमिक्स का जलवा नहीं हो सका, जो अपने आप में हैरानी की बात है, जबकि इंटरनैशनल सुपरहीरोज सुपरमैन, बैटमैन, स्पाइडरमैन और हल्क की फिल्में भारत में जोरदार तरीके से हिट हो जाती हैं। फैंटम और मैंड्रेक अपने फिल्मी अवतारों में कभी पसंदीदा नहीं रहे और भारत में उनके ये अवतार कभी आए ही नहीं।
तो यह एक बड़ी फांक भारत में कॉमिक्स और सिनेमा के बीच रही, जो कि विदेश में गायब दिखती है। वहां सभी सुपरहीरो क़ॉमिक्स से निकले हैं और उनके पीछे साठ-सत्तर बरस की परंपरा है।
भारत ने इस बीच कॉमिक्स में अपने सुपरहीरोज की खोज की - नागराज, ध्रुव और न जाने क्या-क्या। हालांकि इनकी बिक्री के आंकड़े अच्छे बताए जाते हैं, लेकिन इन्हें वैसा स्टेटस हासिल नहीं हुआ, जैसा इंद्रजाल या चित्रकथा का रहा है। इसके पीछे वजह शायद यह थी कि उसी वक्त टीवी ने हमारे यहां किताबों को रसहीन बनाना शुरू कर दिया था।
इस बदलाव की सबसे बड़ी मार कॉमिक्स पर पड़नी ही थी, क्योंकि पढ़ने के बजाय देखना हमेशा सहज और सुखद होता है। खामोश तस्वीरों के लिए ऐनिमेशन से मुकाबला करना नामुमकिन है।
लिहाजा ऐनिमेशन की ही बात करें। टीवी देखने के मामले में भारत दुनिया की बराबरी कर रहा है। लगभग सभी इंटरनैशनल शो आज यहां मौजूद हैं और ऐनिमेशन में भी बेहतरीन चीजें हम तक पहुंच रही हैं, हालांकि थोड़ी पिछड़ जाती हैं।
लाइसेंसिंग और डबिंग में यह देरी होती होगी। इसकी शुरुआत डिज्नी के ऑलटाइम फेवरिट्स मिकी माउस और डॉनल्ड डक से हुई, लेकिन कुछ ही बरसों में कार्टून नेटवर्क के टॉम एंड जेरी के भाई-बंदों ने हमारे दिमागों पर कब्जा कर लिया। इस दौरान भारतीय ऐनिमेशन ने हाथ-पांव मारने की कुछ कोशिशें कीं।
सिंदबाद और पांडवाज नाम की दो ऐनिमेशन फिल्मों की उस वक्त काफी चर्चा हुई, जिनकी आज शायद ही किसी को याद हो। लेकिन तभी ऐनिमेशन की दुनिया में एक नई तरह की संजीदगी आने लगी थी। विदेशों में यह पहले ही हो चुका था, लेकिन भारत में भी ऐनिमेशन बड़ा होने लगा और बच्चों के बजाय उसे टीन-एजर्स की सोहबत रास आने लगी थी।
इस बदलाव का धमाकेदार अहसास पोकेमॉन ने कराया, जो बाकी दुनिया की तरह भारत में भी सबसे पॉपुलर शो बन गया और पॉकेमान मैनिया हर घर-स्कूल में नजर आने लगा। पॉकेमॉन का शौक फीका पड़ने तक चैनल ने वेब्लेड को हमारे बीच भेज दिया और घूमते लट्टुओं का एक बड़ा बाजार खोल दिया। लट्टू को इतनी तवज्जो इस धरती पर पहले कभी नहीं मिली थी। वह छोटी-सी चीज अचानक किसी ब्रह्मास्त्र से भी बड़ी होकर मिथकीय मुकाबलों का हथियार बन गई।
आज हमारे सामने ऐनिमेशन का एक बड़ा संसार मौजूद है। उसमें नामी फिल्में हैं, मिकी जैसे गोल्डन कैरेक्टर हैं, टॉम-जेरी की चुहलबाजी है, बेन-टैन और वेब्लेड जैसे कई टीन-एजर्स के फेवरिट हैं और शिनचैन है, जिसकी अदाओं से कोई बच नहीं पाता। इनके बीच कुछ भारतीय शो भी हैं, जिनका हौसला तो देखने लायक है, लेकिन अपने कलाकारों से हमें वह क्यों नहीं मिलता, जो दुनिया जीत ले।
लो फिर भारत से मुकाबले का किस्सा शुरू हो गया। जरा ठहरिए। शिनचैन को देखिए और उन तमाम कार्टूनों को (पोकेमॉन, वेब्लेड...) जिन्हें मैंगा कहा जाता है। ये सभी जापान से आ रहे हैं और पिछले दस-पंद्रह बरसों में इन्होंने दुनिया पर कब्जा कर लिया है। इंटरनैशनल कल्चर में अब तक अमेरिका का दबदबा रहा है।
हम क्या देखें, क्या पढ़ें, क्या सोचें, हर जगह उसका स्टीम रोलर फिरता आया है। जापान की इसमें कोई बड़ी दखल नहीं रही है। हम भी जापान को लव इन टोकियो के गीत सायोनारा...से ज्यादा नहीं जानते थे। उसी जापान ने अपने मैंगा स्टाइल के ऐनिमेशन से अमेरिकी दादागीरी को ध्वस्त कर दिया है।
भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता? दुनिया के कुछ बेहतरीन ऐनिमेशन स्टूडियोज में हमारे लोग होंगे। टैलंट की कमी कोई मुद्दा नहीं होगी। अगर कहानी मुद्दा है, तो मिथकीय सिचुएशंस की भारत में कमी नहीं रही। अमेरिका और जापान से तो ये ज्यादा ही हैं।
जब फिल्में और गेम्स में अरेबियन किस्से हिट हो सकते हैं तो भारतीय क्यों नहीं! अगर मुद्दा पूंजी और इन सबको एक एंटरप्राइज में समेटने की काबलियत है, तो नए भारत में उसका भी टोटा नहीं पड़ना चाहिए। इसकी डिमांड तो महसूस की जा रही है, इसीलिए इंग्लैंड के वर्जिन कॉमिक्स ने इंडियन मिथकों पर काम किया। लगातार फिल्में आ रही हैं। लेकिन अब भी वह स्टाइल नहीं निकल सका है, जिसे हम दुनिया को अपनी सौगात कह सकें।
लगभग हर कहीं नकल, विदेशी असर या क्रिएटिव समझौते की झलक मिल जाती है, जैसे कम से काम चलाने की कोशिश हो रही हो। बाजार ऐसी चालों को बर्दाश्त नहीं करता। अगर अवतार बननी है तो वह 500 मिलियन डॉलर में ही बनेगी। और अगर हर्ट लॉकर बननी है तो वह 15 मिलियन में ही बनेगी। अब दुनिया की मर्जी है कि वह किसे क्या दर्जा देती है।
निजी तौर पर मैं उम्मीद करता हूं कि भारत वह कर सकता है। हमें आज की कल्चर में इंडिया की धमक चाहिए। योगा, कामसूत्र, ताजमहल या तंदूरी चिकन पर हम कब तक छाती ठोकते रहेंगे। अब जरा कुछ कार्टून भी बना लिए जाएं। या फिर कल्चरल धमाके के कुछ और आइडिया हैं किसी के पास?
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