
यह सही है कि लोकपाल कोई ऐसा जादू नहीं कर देगा, जिससे भ्रष्टाचार रातोंरात समाप्त हो जाए। बल्कि भ्रष्टाचारियों को दंडित करने वाली अभी जो संस्थाएं देश में काम रही हैं, उनके क्रियाकलापों पर विचार करने की जरूरत है कि आखिर वे काम क्यों नहीं कर पा रहीं।


देश की शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार के कीटाणु स्वाधीनता प्राप्ति के तुरंत बाद ही प्रवेश कर गए थे। वर्ष 1950 में केंद्र सरकार ने प्रख्यात नौकरशाह एडी गोरवाला को शासन-व्यवस्था में सुधार के लिए सुझाव देने को कहा था। एक साल बाद अपनी रिपोर्ट में उन्होंने दो कड़वी टिप्पणियां कीं कि नेहरू मंत्रिमंडल के कुछ भ्रष्ट मंत्रियों के बारे में आम जानकारी है, और यह कि सरकार इन मंत्रियों का गलत ढंग से बचाव करती है।
उस वक्त तक केवल जीप घोटाला सामने आया था, जिसमें वीके कृष्ण मेनन पर उंगली उठी थी। भारतीय सेना ने 155 जीपों की मांग की थी, जिनका इस्तेमाल अशांत कश्मीर एवं हैदराबाद में होना था। सेना ने इसके लिए एक ब्रिगेडियर की सेवा उपलब्ध कराई थी, किंतु कृष्ण मेनन ने उन्हें नजर अंदाज कर एजेंट के जरिये एक विदेशी कंपनी को जीप की आपूर्ति का आदेश दे दिया। हालांकि कृष्ण मेनन एक ईमानदार व्यक्ति माने जाते थे और जीप की गुणवत्ता के बारे में भी संदेह नहीं था, लेकिन प्रक्रिया का पालन न करने के कारण वह विपक्ष के निशाने पर आ गए।
दूसरा घोटाला जीवन बीमा निगम-मुंदरा डील थी, जो स्वतंत्र भारत का पहला वितीय घोटाला था। हरिदास मुंदरा कोलकता स्टॉक एक्सचेंज का दलाल एवं उद्योगपति था। उसने अपने प्रभाव से जीवन बीमा निगम के 1.24 करोड़ रुपये का निवेश अपनी छह समस्याग्रस्त कंपनियों में करा दिया। तत्कालीन कांग्रेस सांसद फिरोज गांधी ने इस पूरे घपले को संसद में उजागर किया। सरकार ने न्यायमूर्ति एमसी छागला की एक सदस्यीय जांच समिति का गठन किया। रिपोर्ट में तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी को कानूनी रूप से जिम्मेदार ठहराया गया और उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। मुंदरा को जेल की सजा हुई। उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन हुआ।
उसके बाद घपलों-घोटालों का दौर अनवरत जारी रहा, जबकि सीबीआई अभियुक्तों को सजा दिलाने में अक्षम साबित हुई, क्योंकि यह सही मायने में स्वायत्त नहीं है और राजनीतिक दबाव के तहत काम करती है। सीबीआई द्वारा दायर लगभग नौ हजार मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं, जिनमें से करीब दो हजार मामले तो एक दशक से अधिक समय से लंबित हैं। इसके अलावा ‘एकल निर्देश’ एक भेदभाव करने वाला प्रावधान है, जिसके तहत केंद्र सरकार के संयुक्त सचिव या उससे ऊपर के अधिकारी पर अभियोजन चलाने के लिए उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की पूर्वानुमति होनी चाहिए। यह समानता के अधिकार का हनन करता है।
भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए विशेषाधिकार खत्म कर सही ढंग से परिभाषित प्रक्रिया बनाना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार की परिभाषा को व्यापक रूप देने की भी आवश्यकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. एस. दत्त बनाम उत्तर प्रदेश मामले में व्यवस्था दी थी कि (भ्रष्ट) शब्द में केवल घूस लेना ही शामिल नहीं है। इसका इस्तेमाल वैसे आचरण के लिए होता है, जो नैतिक रूप से पतित है। अन्ना हजारे का आंदोलन भी केवल जन लोकपाल के लिए नहीं है, यह हमारे समग्र जीवन में पैठ बना चुके भ्रष्टाचार को खत्म करने के उद्देश्य से भी शुरू हुआ है। उम्मीद करें कि यह आंदोलन अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा।


देश की शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार के कीटाणु स्वाधीनता प्राप्ति के तुरंत बाद ही प्रवेश कर गए थे। वर्ष 1950 में केंद्र सरकार ने प्रख्यात नौकरशाह एडी गोरवाला को शासन-व्यवस्था में सुधार के लिए सुझाव देने को कहा था। एक साल बाद अपनी रिपोर्ट में उन्होंने दो कड़वी टिप्पणियां कीं कि नेहरू मंत्रिमंडल के कुछ भ्रष्ट मंत्रियों के बारे में आम जानकारी है, और यह कि सरकार इन मंत्रियों का गलत ढंग से बचाव करती है।
उस वक्त तक केवल जीप घोटाला सामने आया था, जिसमें वीके कृष्ण मेनन पर उंगली उठी थी। भारतीय सेना ने 155 जीपों की मांग की थी, जिनका इस्तेमाल अशांत कश्मीर एवं हैदराबाद में होना था। सेना ने इसके लिए एक ब्रिगेडियर की सेवा उपलब्ध कराई थी, किंतु कृष्ण मेनन ने उन्हें नजर अंदाज कर एजेंट के जरिये एक विदेशी कंपनी को जीप की आपूर्ति का आदेश दे दिया। हालांकि कृष्ण मेनन एक ईमानदार व्यक्ति माने जाते थे और जीप की गुणवत्ता के बारे में भी संदेह नहीं था, लेकिन प्रक्रिया का पालन न करने के कारण वह विपक्ष के निशाने पर आ गए।
दूसरा घोटाला जीवन बीमा निगम-मुंदरा डील थी, जो स्वतंत्र भारत का पहला वितीय घोटाला था। हरिदास मुंदरा कोलकता स्टॉक एक्सचेंज का दलाल एवं उद्योगपति था। उसने अपने प्रभाव से जीवन बीमा निगम के 1.24 करोड़ रुपये का निवेश अपनी छह समस्याग्रस्त कंपनियों में करा दिया। तत्कालीन कांग्रेस सांसद फिरोज गांधी ने इस पूरे घपले को संसद में उजागर किया। सरकार ने न्यायमूर्ति एमसी छागला की एक सदस्यीय जांच समिति का गठन किया। रिपोर्ट में तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी को कानूनी रूप से जिम्मेदार ठहराया गया और उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। मुंदरा को जेल की सजा हुई। उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन हुआ।
उसके बाद घपलों-घोटालों का दौर अनवरत जारी रहा, जबकि सीबीआई अभियुक्तों को सजा दिलाने में अक्षम साबित हुई, क्योंकि यह सही मायने में स्वायत्त नहीं है और राजनीतिक दबाव के तहत काम करती है। सीबीआई द्वारा दायर लगभग नौ हजार मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं, जिनमें से करीब दो हजार मामले तो एक दशक से अधिक समय से लंबित हैं। इसके अलावा ‘एकल निर्देश’ एक भेदभाव करने वाला प्रावधान है, जिसके तहत केंद्र सरकार के संयुक्त सचिव या उससे ऊपर के अधिकारी पर अभियोजन चलाने के लिए उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की पूर्वानुमति होनी चाहिए। यह समानता के अधिकार का हनन करता है।
भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए विशेषाधिकार खत्म कर सही ढंग से परिभाषित प्रक्रिया बनाना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार की परिभाषा को व्यापक रूप देने की भी आवश्यकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. एस. दत्त बनाम उत्तर प्रदेश मामले में व्यवस्था दी थी कि (भ्रष्ट) शब्द में केवल घूस लेना ही शामिल नहीं है। इसका इस्तेमाल वैसे आचरण के लिए होता है, जो नैतिक रूप से पतित है। अन्ना हजारे का आंदोलन भी केवल जन लोकपाल के लिए नहीं है, यह हमारे समग्र जीवन में पैठ बना चुके भ्रष्टाचार को खत्म करने के उद्देश्य से भी शुरू हुआ है। उम्मीद करें कि यह आंदोलन अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा।
हम सब यह कामना करते है.कि यह आंदोलन अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा.आलेख के लिए बधाई
ReplyDeleteबेहद शानदार आलेख मनोज जी
ReplyDeleteहम सब यह कामना करते है.कि यह आंदोलन अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा.आलेख के लिए बधाई मनोज जी
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