क्या है अयोध्या मिल्कियत का विवाद

अयोध्या की विवादित जमीन का मुकदमा भारतीय कानून के इतिहास का सबसे लंबा चलने वाला केस है, जिसकी शुरुआत 125 साल पहले 1885 में हुई. लेकिन कई बार बरसों बरस यह ठंडे बस्ते में पड़ा रहा. मुकदमा अभी भी पूरा नहीं हुआ है.


अयोध्या का विवाद तब शुरू हुआ जब 19वीं सदी में महंत रघुवर दास मस्जिद के साथ एक मंदिर बनाने की कोशिश करने लगे और उस वक्त के फैजाबाद के डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया.
इसके बाद कानूनी पक्ष अपनाते हुए दास ने 1885 में सरकार के खिलाफ अदालत का रास्ता अपनाया और कहा कि उन्हें कम से कम विवादित स्थल के बाहरी हिस्से में राम चबूतरा बनाने की इजाजत मिले.
लेकिन अदालत ने उनकी याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह मामला 350 साल से ज्यादा पुराना है और अब इस पर किसी तरह का फैसला नहीं किया जा सकता. फैजाबाद की अदालत ने यथास्थिति बनाए रखने का फैसला किया.
अगले 60 साल तक यही स्थिति बनी रही. लेकिन फिर 1949 में मुकदमे को फिर से शुरू किया गया. 23 दिसंबर 1949 को एक एफआईआर दर्ज कर दावा किया गया कि करीब 50 लोगों के जत्थे ने इमारत का ताला तोड़ कर वहां एक मूर्ति रख दी है.
इस एफआईआर के फौरन बाद इसकी घेराबंद कर दी गई और इसकी देखरेख के लिए फैजाबाद जिला प्रशासन ने एक कस्टोडियन नियुक्त कर दिया. सरकारी नियुक्त पुजारी ही वहां पूजा कराने के लिए अधिकृत किया गया.
मामले ने नया रूप तब लिया जब 16 जनवरी 1950 को हिंदू महासभा के सदस्य गोपाल सिंह विषारद और अयोध्या में दिगंबर अखाड़े के संरक्षक परमहंस रामचंद्र दास ने फैजाबाद की अदालत में जिले के कुछ अधिकारियों और मुस्लिम पक्ष के खिलाफ अपील की.
उन्होंने अदालत से कहा कि वहां निर्बाध तरीके से पूजा की इजाजत मिलनी चाहिए. इसके बाद 26 अप्रैल 1955 को अदालत ने अंतरिम आदेश जारी कर कहा कि मूर्ति जिस स्थान पर है वहीं बनी रहेगी. इसके बाद 17 दिसंबर 1959 को निर्मोही अखाड़े ने दूसरी याचिका दायर की जिसमें उत्तर प्रदेश सरकार को पार्टी बनाया गया और कहा गया कि उन्हें उनकी जमीन वापस दी जाए.
इसके दो साल बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड ने 18 दिसंबर 1961 को एक याचिका दायर कर अपील की कि वहां से मूर्ति को हटाया जाए, ढांचे को मस्जिद घोषित किया जाए और तमाम दूसरी चीजों को वहां से हटा दिया जाए. इन सभी मामलों को 1964 में एक साथ मिला दिया गया.
अयोध्या फैसले को सुनते बीजेपी के नेता20 साल तक मुकदमा अदालतों में तो चलता रहा लेकिन आम आदमी को इससे कोई मतलब नहीं था. पर 1984 में विश्व हिंदू परिषद ने वहां राम मंदिर बनाने का एलान कर विवाद को हवा दे दी. 1986 में वीएचपी ने राम जन्मभूमि न्यास का गठन कर दिया जिसे मंदिर बनाने की जिम्मेदारी दी गई. वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम संगठनों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बना ली.
एक साल बाद 16 दिसंबर 1987 को यह पूरा मुकदमा फैजाबाद की अदालत से हट कर इलाहाबाद हाई कोर्ट में चला गया. कोर्ट ने सभी राजनीतिक पार्टियों और संबंधित पक्षों से कहा कि वे यथास्थिति बनाए रखें.
करीब दो साल बाद 25 अक्तूबर 1989 को अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार से कहा कि वह ढांचे के आस पास की जमीन अधिग्रहीत कर सकती है. बाद में मुस्लिम संगठनों की अपील के बाद 2.7 एकड़ जमीन पर किसी भी पक्की इमारत के निर्माण पर रोक लगा दी गई.
मामले में बड़ा मोड़ तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में सांकेतिक कार सेवा की इजाजत दे दी क्योंकि बीजेपी ने भरोसा दिलाया कि किसी तरह की हिंसा नहीं होगी. लेकिन लाल कृष्ण आडवाणी, उमा भारती और कुछ अन्य मौजूदगी में 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई.
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