राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद मुद्दा देश में सबसे लंबे समय तक चलने वाला मुकदमा है जिसकी शुरूआत वास्तव में 1885 में ही हो गयी थी. विवाद की शुरूआत उस समय हुयी जब महंत रघुवर दास ने अयोध्या में विवादित ढांचे से लगी जमीन पर मंदिर बनाने का प्रयास किया लेकिन फैजाबाद के तत्कालीन उपायुक्त ने उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी. विवादित ढांचे के पास चबूतरे पर मंदिर बनाने की सरकार से अनुमति नहीं मिलने के बाद कानूनी रास्ता अख्तियार करते हुए दास ने 1885 में फैजाबाद अदालत में दीवानी याचिका दायर की. लेकिन यह याचिका इस आधार पर खारिज कर दी गयी कि यह घटना (मूल राम मंदिर को कथित तौर पर गिराने की घटना 1528 में) करीब 350 साल पहले हुई और अब इतना विलंब हो चुका है कि अब यह शिकायत दूर नहीं की जा सकती है. फैजाबाद अदालत ने यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया.
इसके बाद यह मामला करीब छह दशक तक सुषुप्त बना रहा तथा 1950 में मामला एक बार फिर उठा. 23 दिसंबर 1949 को एक प्राथमिकी दर्ज कर आरोप लगाया गया कि करीब 50 लोगों ने ढांचे का ताला तोड़ दिया और वहां राम तथा अन्य हिन्दू देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित कर दीं. प्राथमिकी दर्ज कराए जाने के बाद ढांचे को सील कर दिया गया और फैजाबाद जिला प्रशासन ने वहां एक रिसीवर नियुक्त कर दिया जिन्हें यह सुनिश्चित करना था कि एक पुजारी के जरिए प्रतिमा की पूजा हो सके.
मामले में 16 जनवरी 1950 को नया मोड़ आया जब हिन्दू महासभा के सदस्य गोपाल सिंह विशारद और अयोध्या में दिगंबर अखाड़ा के रामचंद्र दास ने कुछ जिला अधिकारियों और मुस्लिमों के खिलाफ फैजाबाद अदालत में दीवानी याचिका दायर की. उन्होंने मूर्तियां हटाने जाने पर रोक लगाने की मांग की. इसके साथ ही उन्होंने पूजा और दर्शन जारी रखने की भी मांग की.
26 अप्रैल 1955 को आए अदालत के एक अंतरिम फैसले में कहा गया कि मूर्तियां वहीं रहने दी जाएं. वर्ष 1959 में 17 दिसंबर को निर्मोही अखाड़ा भी विवाद में शामिल हो गया तथा उसने तीसरा वाद दायर किया. उसने उत्तर प्रदेश सरकार और रिसीवर के खिलाफ मामला दायर करते हुए संपत्ति उसके सुपुर्द किए जाने की मांग की.
इसके दो साल बाद 18 दिसंबर 1961 को सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड भी विवाद में शामिल हो गया और उसने ढांचे को मस्जिद घोषित करने, आसपास की भूमि उसके सुपुर्द किए जाने और वहां से मूर्तियां तथा अन्य सामान हटाए जाने की मांग की. बाद में 1964 में सभी वादों को एक साथ मिला दिया गया. वर्ष 1984 में इस मुद्दे ने राजनीतिक रूप ले लिया और विश्व हिन्दू परिषद ने विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण के लिए अभियान शुरू किया.
वर्ष 1986 में विहिप ने रामजन्मभूमि न्यास का गठन किया वहीं मुस्लिम नेताओं ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी की स्थापना की. 16 दिसंबर 1987 को उत्तर प्रदेश सरकार ने सभी याचिकाओं को फैजाबाद अदालत से इलाहाबाद उच्च न्यायालय स्थानांतरित करने की मांग की. इसके बाद उच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों को विवादित स्थल पर जारी यथास्थिति को बिगाड़ने से रोका.
25 अक्तूबर 1989 को अदालत ने प्रदेश सरकार को ढांचे के पास की भूमि अपने कब्जे में लेने की अनुमति दी. लेकिन, बाद में मुस्लिम नेताओं की अपील पर विवादित ढांचे के पास 2.77 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को खारिज करते हुए स्थायी निर्माण पर रोक लगा दी. एक अन्य घटनाक्रम में तत्कालीन सरकार ने 10 नवंबर 1989 को 2.77 एकड़ भूमि के बाहर शिलान्यास की विहिप को अनुमति दी. उच्चतम न्यायालय ने 27 नवंबर 1992 को कल्याण सिंह की भाजपा सरकार के आश्वासन पर सांकेतिक कार सेवा की अनुमति दी. इसके कुछ ही दिन बाद छह दिसंबर 1992 को ढांचे को गिरा दिया गया और इसके बाद देश के कई हिस्सों में दंगे हुए .सम्पादक मनोज जैसवाल email manojjaiswalpbt@gmail.com
इसके बाद यह मामला करीब छह दशक तक सुषुप्त बना रहा तथा 1950 में मामला एक बार फिर उठा. 23 दिसंबर 1949 को एक प्राथमिकी दर्ज कर आरोप लगाया गया कि करीब 50 लोगों ने ढांचे का ताला तोड़ दिया और वहां राम तथा अन्य हिन्दू देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित कर दीं. प्राथमिकी दर्ज कराए जाने के बाद ढांचे को सील कर दिया गया और फैजाबाद जिला प्रशासन ने वहां एक रिसीवर नियुक्त कर दिया जिन्हें यह सुनिश्चित करना था कि एक पुजारी के जरिए प्रतिमा की पूजा हो सके.
मामले में 16 जनवरी 1950 को नया मोड़ आया जब हिन्दू महासभा के सदस्य गोपाल सिंह विशारद और अयोध्या में दिगंबर अखाड़ा के रामचंद्र दास ने कुछ जिला अधिकारियों और मुस्लिमों के खिलाफ फैजाबाद अदालत में दीवानी याचिका दायर की. उन्होंने मूर्तियां हटाने जाने पर रोक लगाने की मांग की. इसके साथ ही उन्होंने पूजा और दर्शन जारी रखने की भी मांग की.
26 अप्रैल 1955 को आए अदालत के एक अंतरिम फैसले में कहा गया कि मूर्तियां वहीं रहने दी जाएं. वर्ष 1959 में 17 दिसंबर को निर्मोही अखाड़ा भी विवाद में शामिल हो गया तथा उसने तीसरा वाद दायर किया. उसने उत्तर प्रदेश सरकार और रिसीवर के खिलाफ मामला दायर करते हुए संपत्ति उसके सुपुर्द किए जाने की मांग की.
इसके दो साल बाद 18 दिसंबर 1961 को सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड भी विवाद में शामिल हो गया और उसने ढांचे को मस्जिद घोषित करने, आसपास की भूमि उसके सुपुर्द किए जाने और वहां से मूर्तियां तथा अन्य सामान हटाए जाने की मांग की. बाद में 1964 में सभी वादों को एक साथ मिला दिया गया. वर्ष 1984 में इस मुद्दे ने राजनीतिक रूप ले लिया और विश्व हिन्दू परिषद ने विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण के लिए अभियान शुरू किया.
वर्ष 1986 में विहिप ने रामजन्मभूमि न्यास का गठन किया वहीं मुस्लिम नेताओं ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी की स्थापना की. 16 दिसंबर 1987 को उत्तर प्रदेश सरकार ने सभी याचिकाओं को फैजाबाद अदालत से इलाहाबाद उच्च न्यायालय स्थानांतरित करने की मांग की. इसके बाद उच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों को विवादित स्थल पर जारी यथास्थिति को बिगाड़ने से रोका.
25 अक्तूबर 1989 को अदालत ने प्रदेश सरकार को ढांचे के पास की भूमि अपने कब्जे में लेने की अनुमति दी. लेकिन, बाद में मुस्लिम नेताओं की अपील पर विवादित ढांचे के पास 2.77 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को खारिज करते हुए स्थायी निर्माण पर रोक लगा दी. एक अन्य घटनाक्रम में तत्कालीन सरकार ने 10 नवंबर 1989 को 2.77 एकड़ भूमि के बाहर शिलान्यास की विहिप को अनुमति दी. उच्चतम न्यायालय ने 27 नवंबर 1992 को कल्याण सिंह की भाजपा सरकार के आश्वासन पर सांकेतिक कार सेवा की अनुमति दी. इसके कुछ ही दिन बाद छह दिसंबर 1992 को ढांचे को गिरा दिया गया और इसके बाद देश के कई हिस्सों में दंगे हुए .सम्पादक मनोज जैसवाल email manojjaiswalpbt@gmail.com
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