कश्मीर के देशद्रोही कट्टरपंथी तत्वों का हौसला इतना बढ गया है कि उनके सरगना सैयद अली शाह गिलानी 21 अक्टूबर को दिल्ली आए और माओवादी समर्थक लेखिका अरुंधती राय के साथ कश्मीर की आजादी के विषय पर दिल्ली में भाषण देने की जुर्रत की। इससे देशभक्ति ही आहत हुई।
विचारों की स्वतंत्रता का महत्व है यह माना लेकिन देशद्रोहियों को देश की राजधानी में पाकिस्तान का प्रोपगैंडा करने की इजाजत देना केवल मूर्खता और सरकारहीनता ही कही जायेगी। गिलानी और अरुंधती राय के जहरीले राष्ट्रीय बयानों पर उन्हें गिरफ़तार करते हुए सबक देने वाली सजा दी जानी चाहिए। बिडम्बना यह थी कि इस अवसर पर रूट्स इन कश्मीर, पनून कश्मीर भारतीय जनता युवा मोर्चा आदि संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया लेकिन ज्यादातर मीडिया ने इस घटना पर विशेष ध्यान नहीं दिया।
कश्मीर के तालिबानीकरण ने वहां की पुरानी सूफी परम्परा को भी ध्वस्त कर दिया है। कश्मीर में मुस्लिम पीर दरवेशों को भी ऋषि कहा जाता है। पर वहाबी मुस्लिम कट़टरवाद ने हिन्दू मुस्लिम एक्य के तमाम पुलों को ही तोड़ दिया है।
इस वर्ष जून में श्रीनगर में जब हमने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान दिवस मनाया तो अनेक चौंकाने वाले अनुभव हुए, जिनसे सिद्व होता है कि दिल्ली के सेकुलर सुल्तानों के कारण तालिबानीकरण कितने खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। 23 जून 1953 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का श्रीनगर में बलिदान हुआ था शेख अब्दुल्ला उस समय कश्मीर के वजीर-ए-आजम कहे जाते थे और शेष भारत से जम्मू कश्मीर में प्रवेश के लिए परमिट लेना पडता था, भारतीय जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को यह अस्वीकार्य था और उन्होंने एक देश व्यापी जनआन्दोलन का नेतृत्व करते हुए नारा दिया था एक देश में दो निशान, दो विधान, दो प्रधान नहीं चलेगा।
उन्होंने शेख अब्दुल्ला के देश के विखंडनकारी शासन को चुनौती देते हुए जम्मू कश्मीर में बिना परमिट प्रवेश करने का निर्णय लिया और पंजाब के पठानकोट जिले के माधोपुर नगर से जम्मू कश्मीर में लखनपुर नामक स्थान से प्रवेश किया। शेख अब्दुल्ला और पं. नेहरू का षड्यंत्र पहले से ही तैयार था। डॉ. मुखर्जी को लखनपुर से बिना परमिट प्रवेश के प्रयास पर उन्हें वापस पंजाब न भेजते हुए कश्मीर पुलिस ने योजनाबद्ध तरीके से उनको गिरफ़्तार कर लिया और जीप में रातोंरात श्री नगर ले गए जहां रहस्यमयी परस्थितियों में 23 जून 1953 को उनका निधन हो गया। उनके निधन को श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हत्या निरूपित किया था।
57 वर्षों बाद पहली बार 23 जून 2010 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउडेशन द्वारा श्रीनगर में डॉ. मुखर्जी का बलिदान दिवस मनाया गया, जिसमें पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी. पी. मलिक, प्रख्यात सम्पादक श्री एम. जे. अकबर, कश्मीर विश्व विद्यालय के उप कुलपति प्रो. रियाज पंजाबी, जनरल आदित्य सिंह जैसे विद्वान शामिल हुए।
इस दौरान राज्य की एक महत्वपूर्ण अधिकारी ने बताया कि घाटी में हिन्दू महिलाओं का बाजार में बिन्दी लगाकर चलना असंभव हो गया है, हिन्दू पुरूष और महिलाएं अपनी पहचान छिपा कर चलना ज्यादा मुनासिब और सुरक्षित मानते हैं। श्रीनगर में पहले 2500 से ज्यादा हिन्दू परिवार थे। आज वहां सिर्फ बीस हिन्दू परिवार बचे हैं। उन्हें भी निकल जाने के लिए पिछले साल धमकियां मिली थीं। इसके बाद जब स्थानीय कश्मीरी हिन्दू संगठनों के नेता पुलिस अधिकारियों से मिली तो उन्होंने उनकी मदद करने से कदम पीछे हटा लिए। अन्ततः एक स्तब्धकारी घटनाक्रम में एक वरिष्ठ अधिकारी ने उनसे कहा कि यदि आपको सच में हिफाजत चाहिए तो आप सैयद अली शाह गिलानी के पास जाएं। मजबूर होकर वे हिन्दू गिलानी के पास गये तो उन्हे हिफाजत मिली। इस प्रकार अलगाववादी नेता अपनी शर्तें सिख व हिन्दू परिवारों से भी मनवाने में कामयाब रहते हैं।
कश्मीर घाटी में 750 से ज्यादा हिन्दू मंदिर तोडे जा चुके हैं कुछ मंदिर बचे हैं उनकी रक्षा के लिए केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल सीआरपीएफ के जवान तैनात हैं। कश्मीर में बचे खुचे साठ हजार सिखों को इस्लाम कबूल करने वरना घाटी छोड़ने की धमकी उसी सिलसिले का एक पड़ाव है जिसके अन्तर्गत पहले सात सौ से अधिक मन्दिर तोड़, पांच लाख हिन्दुओं को निकाला, लद्दाख के बौद्धों को सताया और छितीसिंह पुरा जैसे सिख नरसंहार किए गए।
हर दिन वहां नौजवान कश्मीरियों के मारे जाने की खबरें आ रही हैं। पत्थरबाजी, आगजनी और तोड़फोड़ की घटनाएं वहां की जिन्दगी में आम बात की तरह शामिल हो चुकी है। सुरक्षाबलों के प्रति तीव्र विद्वेष और आक्रामकता पैदा की जा रही है। जानबूझकर ऐसी स्थिति बनायी जाती है जिसमें सुरक्षाबलों को आत्मरक्षा के लिए गोली चलानी पड़े - वे पहले पानी की बौछार फेंकते हैं, फिर रबर की गोलियां चलाते हैं। रबर की गोली भी यदि नजदीक से लगती है तो मारक साबित होती है। उसमें यदि कोई पत्थरबाज युवक या किशोर मारा जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया में और हिंसा भड़कती है और इस प्रकार एक दुष्चक्र चल पड़ता है।
दो-दो पीढ़ियां जहां अलगाववादी जहर तथा दिल्ली के सेकुलर 370 छाप छत्र तले बड़ी हुई हों, वहां की नफरतें खत्म करने के लिए श्यामाप्रसाद मुखर्जी और सरदार पटेल की युति जैसे नेतृत्व की जरूरत होगी। दिल्ली में गिलानी और अरुंधती राय जैसे अराष्ट्रीय तत्वों की उपस्थिति और उनके जहरीले बयान यदि किसी दूसरे देश में हुए होते तो जनता में इतना गुस्सा उमड़ता कि सरकार पलटनी पड़ सकती थी। आखिरकार गिलानी और अरुंधती के भारत विरोधी बयान क्या विचार स्वतंत्रता की श्रेणी में आते हैं?
दोष मनमोहन सिंह और चिदंबरम का नहीं है जितना सोनिया और राहुल का है। देश के असली शासक तो इन्हीं को माना जाता है। गरीब, दलित, बिहार में केंद्रीय फंड का हिसाब जैसे मुद्दे यही दोनों उठाते हैं। और यही दोनों कश्मीरी तालिबानों से लेकर माओवादी आतंकवादियों तक के बारे में बेहद नरम रुख अपनाकर भ्रामक संकेत देते हैं। यह इसलिए है क्योंकि इन दोनों के हृदय में भारत नहीं बल्कि भारत का सत्ता भोग है। जो कांग्रेसी राहुल की जे.पी. से तुलना कर रहे हैं क्या वे कह सकते हैं कि वास्तविक लोकतंत्र और राष्ट्रीयता की रक्षा के लिए राहुल जे.पी. की तरह जेल जाने के लिए भी तैयार हैं?email-manojjaiswalpbt@gmail.comPTI
हर शाख पर उल्लू बैठे हैं, अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा.
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