निष्‍पक्ष रहें ही नहीं, दिखें भी...

 मनोज जैसवाल 





किसी भी महफिल में आजकल आप जाये (आप यानी पत्रकार) तो लोग कुछ अलग सी निगाहों से देखते हैं. आंखों में एक सवाल सा होता है हाव-भाव से लगता है जैसे लोग कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन कहते नहीं. हाथ मिलाइये तो लोग जल्दी से हाथ वापस ले लेते हैं, मानों हाथ नहीं कोई इंफेक्शन भरा लिफाफा हो.

 
कुछ पुराने दोस्त जरा कतराने लगे हैं, खास कर वो, जो सरकार में ऊंचे ओहदों पर विराजमान हैं. ऐसे दोस्त, जो हर मौके पर खास मिला करते थे, सरकारी नीतियों से लेकर तमाम मंत्रियों की कथनी और करनी के संबध में व्यक्तिगत तौर पर अपनी टिप्पणियां दिया किया करते थे. आज ये सारे कॉरपोरेट जगत और अफसर वर्ग के बड़ें नाम, पत्रकारों से जरा दूरी बनाने लगे हैं. वजह कुछ खुफिया नहीं है– बस लोगों में अब ये डर आने लगा है कि कहीं सामने वाला पत्रकार किसी टेप कांड में तो नहीं फंसा है? कोई लॉबिस्ट तो नहीं है? एक ऐसा डर जिसने हम पत्रकारों के सामने एक यक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया है- क्या दूसरों पर आक्षेप करने से पहले, हम पत्रकारों को खुद अपनी गिरेबान में झांक कर देखना चाहिये? शायद हां. और इस हां के साथ ही एक और अहम सवाल– हमें ये तय करना होगा कि हम क्या खुद को लोकतंत्र का चौथा खम्भा मानते हैं? अगर हां तो फिर हमें अपनी सीमाएं खुद ही तय करनी होगी– नहीं तो हमारा अस्तित्व हमेशा सवालों के घेरे में रहेगा.
 
ऐसा नहीं है कि पत्रकारों की मर्यादा की चौहदी आज खतरे में है. पत्रकारिता हमेशा खतरे में रही है– ठीक वैसे ही, जैसे कुछ धर्म गुरुओं ने धर्म को हमेशा बचाने के लिए हर सदी में आवाज लगाई. कहा कि, 'धर्म खतरे में है और धर्मिकता को बचाने के लिए कुर्बानी चाहिये'. पत्रकारिता का पतन हर दौर में होता आया है. ये बातें कम से कम मैंने तो, पिछले 18 सालों में खुब सुनी है. गौर करने वाली बात ये है कि स्वतंत्र भारत के हर दशक में बीते वक्त कि दुहाई देकर लोगों ने कहा कि पहले का जमाना अलग था. पहले के पत्रकार अच्छे थे. पत्रकारिता का स्तर हुआ करता था और मौजूदा पतन के लिए आज का समाजिक परिवेश और नयी पीढ़ी के पत्रकार पूरी तरह से जिम्मेदार हैं.
 
भला कोई ये तो बताये कि पत्रकारों ने कब वैचारिक ज्ञान शासनकरताओं को नहीं दिया? कब पत्रकारों ने राजनीतिज्ञों को कूटनीतिक या चतुराई से सराबोर, रास्ता नहीं सुझाया? ऐसा कौन सा वत्त रहा जब पत्रकारों ने अपने पहचान वालों के लिए किसी अफसर या नेता से एहसान नहीं लिया? ऐसा कौन सा दौर रहा जब मालिकों के आगे पत्रकारों ने अपनी सोच को नहीं झुकाया? कोई ये तो बताने कि जहमत उठाये कि पत्रकारों के लिए किस दौर में आचार संहिता बनी– और किस पत्रकार ने कभी उस तथाकथित आचरण का पालन किया, जिसकी दुहाई आज हर कोई देना चाहता है?
 
हर दौर में पत्रकारों की जमात में कुछ नाम ऐसे रहे जिन्होंने उन बुलंदियों को छुआ जिससे पत्रकारिता की पहचान बनी. बाकि सभी तो औसत, मध्यवर्गी सोच के अनुयायी रहे. रोज दफ्तर आये, काम किया, घर गये, परिवार के साथ वक्त बिताया और बिना लाग-लपेट के जिंदगी गुजार दी. कुछ ही ऐसे दिग्गज रहे और आज भी हैं, जिनके दम पर पत्रकारिता का बिल्ला चमकता रहा और बाकि सभी आपने घर को चलाते है. ठीक वैसे ही जैसे अन्‍य पेशों में होता है.
जी ...पेशा. पत्रकारिता भी तो एक पेशा है. नौकरी है. जहां आवाज उठाने से पहले सोचना होता है कि सही बात पर बोलो, नहीं तो मुंह की खानी होगी. जहां हर शब्द नाप-तोल कर बोला और लिखा जाता है. जहां ये सोचना होता है कि सर पर कफन बांध कर वहीं निकल सकता है जिसमें मादा हो, सार्मथ्‍य हो. जहां महीने के आखिर में, काम के बदले तनख्वा मिलती है. उसी तनख्वा से ईएमआई भरी जाती है. तभी तो आज के पत्रकारों की जमात को ईएमआई पत्रकार कहा जाता है.
पत्रकारिता हमेशा से ही एक पेश रही है. बस फर्क ये रहा कि आज से दस-बारह साल पहले, एक पत्रकार को तनख्वा के तौर पर कुछ खास पैसे नहीं मिला करते थे. आमदनी इतनी कम होती थी, कि इस पेशे में वहीं आते थे, जिनके सर पर या तो पत्रकारिता का भूत सवार होता था, या फिर वे जो बहुत ही संपन्‍न घर के हुआ करते थे. हां, हर दौर में पत्रकारों का एक तबका वो भी हुआ करता था, जो पढ़ा-लिखा तो होता था, लेकिन किसी कारणवश, सरकारी नौकरी या कंपनी की नौकरी से महरुम रह जाता और फिर कुछ करने की जद में पत्रकार बन जाया करता था. अच्छी लेखनी और सोच के मालिक होते थे, ये पत्रकार. लेकिन घर चलाने की मजबूरी में पत्रकारिता को एक पेशे के तौर पर जीते थे. आज भी ऐसे पत्रकारों की कमी नहीं है. आज भी ये तबका सबसे प्रबल है, प्रभावशाली है और कहीं ना कहीं सबसे ज्यादा मुखर भी है. तभी तो पत्रकारिता की चौहद्दी की अस्मिता की सबसे ज्यादा परवाह इसी तबके को है.
...और परवाह होनी भी चाहिए. पत्रकार बनते ही, एक शक्स को हर उस व्यक्ति पर सवाल उठाने का हक मिल जाता है जो कुछ ना कुछ गलत कर रहा है– या तो देश के साथ या समाज के. एक पत्रकार- उन तमाम कुरीतियों और रुढ़ीवाद को जड़ से उखाड़ना चाहता है जो सामाजिक तौर पर हमें दिवालिया बना रहे हैं. हर तरह के भ्रष्टाचार को लोगों के समकक्ष रखना चाहता है, जिससे हमारा पतन हो रहा हो. एक पत्रकार– बदलाव का वो एजेंट बनना चाहता है, जिससे चौतरफा बेहतरी हो. लेकिन जब ये बदलाव का एजेंट- अपने एजेंडे से भटक जायें तो फिर उसे कोई हक नहीं हैं कि वो दूसरों पर उंगली उठाये. पत्रकारों पर आम जनता ने सच को उजार करने का भरोसा हमेशा दिखाया है. और हर पत्रकार कहीं ना कही यही दावा करता है कि सच के सिवाय वो ना तो कुछ लिखता है और ना ही बोलता है. ऐसे दावों के बीच, कोई भी पत्रकार अपने बुनियादी सोच को कैसे गिरवी रख सकता है? वो कैसे लॉबिस्ट बन सकता है? वो कैसे एक राजनीतिक दल के करीब बैठ कर दूसरे राजनीतिक दलों की बखिये उधेड़ सकता है? कैसे वो तमाम व्यापारिक संस्थाओं से जुड़कर एक बिचौलिये की तरह काम कर सकता है? नहीं, ये हक एक पत्रकार को नहीं है.
ये नहीं हो सकता कि पत्रकार- एक कर्मचारी की तरह काम करे, बदलाव के एजेंट होने का दम भरे, हर गलती करने वाले पर ऊंगली उठाये और मौका मिले तो खुद का उल्लू सीधा कर ले. ये तो अवसरवाद है– विशुद्ध अवसरवाद.
भारत में पत्रकारों की बहुत बड़ी जमात है– जिसमें टीवी और अखबारों के हजारों पत्रकार शामिल हैं. ऐसे में लोगों की सोच भिन्न जरुर हो सकती है. अब वक्त आ गया है कि भारत के पत्रकारों को वो करना होगा जो कुछ देशों के पत्रकार करते हैं. लोगों के सामने ये बताना होगा कि वे अमुक विचारधार से जुड़ें हैं. उन्हें ये कहने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिये कि भई, ये हैं हमारा राजनीतिक रुझान. पत्रकारों को ये भी बताने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिये कि हम फलां व्यावसायिक संस्थान से जुड़ें हैं और उसके हितों को दूसरों से जरा आगे रखते हैं. ...और अगर किसी पत्रकार में कोई भी रुझान नहीं है तो उसे हर वक्त अपनी छवि के प्रति सजग रहना होगा. उसे वक्त दर वक्त ये साबित करते रहना होगा कि वो किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं है. आखिरकार नेताओं, अफसरों, न्यापालिका की तरह ही पत्रकारों की भी एक जिम्मेदारी तो हैं ही. निष्‍पक्ष होना ही काफी नहीं– दिखना भी होगा. ...और अगर नहीं, तो फिर लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ की श्रेणी से खुद को अलग करना होगा.
इस मामले पर चर्चा अनंतकाल तक की जा सकती है कि क्या वास्तविकता है और क्या वाकई में होना चाहिये. हर काल में पत्रकारिता का पतन तो हो ही रहा है- तो आज क्या अलग है? आज फर्क सिर्फ इतना है कि देश में पत्रकारों की जमात बहुत बड़ी हो गयी है- और इस जमात में कई तरह की सोच वाले लोग शामिल हैं. इसलिए नजरिया अलग–अलग होने लगा है और रास्ते भी.
आज जब बहुत कुछ छिपा नहीं रह सकता, तो पत्रकारों को ये मान लेना चाहिये कि लोगों की निगाहें हर वक्त उन्हें उतना ही टटोलती हैं, जितना किसी और को. इसलिए बड़बोला बनने के बजाये, पत्रकारों के लिए आज निहायत ही जरुरी है कि वो निष्‍पक्ष दिखें. निष्‍पक्ष रहना या ना रहना हर पत्रकार की अपनी सोच हो सकती है
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