भ्रष्‍टाचार के अंधेरे में उम्‍मीद का दीया जलाएं

मनोज जैसवाल




हम कितने भ्रष्ट हो सकते हैं. या यूं कहें कि भ्रष्टाचार के कितने किस्सों और कहानियों को सुने और भ्रष्टाचार की नित नई परिभाषा को जानने के बाद हम कब तक अपने आप को चौंकाने का दम रखते हैं. हम-यानी, भारतवर्ष की आम जनता. हमारे जीवन में भ्रष्टाचार की इतनी ज्यादा अहमियत या जगह, क्यों है? सुबह से लेकर शाम तक, हमारे हर काम में जो हमारे घर की परिधि से बाहर हो, उसमें किसी ना किसी रुप में भ्रष्टाचार हमारे चारो ओर क्यों होता है, क्यों हमें इससे निरंतर जूझना पड़ता है. क्या थके नहीं हैं, हम अबतक इस शब्द -भ्रष्टाचार, से?


हर दिन किसी ना किसी नेता, अफसर, राजनीतिक कार्यकर्ता, बिजनेसमैन, सीईओ, शरीके बड़े आदमी की करनी और उससे होने वाले करोड़ों, अरबों के राष्ट्रीय नुकसान की बात पिछले 63 सालों से देखते या सुनते आये हैं. अब तो आदत होने लगी है. अगर टीवी या अखबार में किसी के घूस लेने या देने की बात ना दिखें, तो अटपटा लगता है- खलने लगता है. लगता है कि आज तो देश में कुछ हुआ ही नहीं. महसूस होता है, जैसे सरकार और सरकारी तंत्र काम ही नहीं कर रहा. ...भई बिना लेन-देन के हम कहां आगे बढ़ते हैं.

50, 60, 70 के दशक की बातों को छोड़ देते हैं. 1949 में सबसे पहले मशीनगन स्कैम सामने आया था, फिर 1952 में जीप स्कैम और फिर तो स्कैमों की झड़ी सी लग गयी. उस पीढ़ी में घोटालों का दायरा बड़ा छोटा हुआ करता था. रकम कम हुआ करती थी और अगर घोटाले की जानकारी सामने आये, तो लोग लिहाज में ही सही, अपने पद से हट जाया करते थें.

कृष्णामेनन की बात छोड़ देते हैं. वो तो नेहरु के इतने चहेते थें कि कांग्रेसियों ने नेहरु के सम्मान में उन्हें बख्श दिया. लेकिन इमरजेंसी के बाद, भ्रष्टाचार को मानो वैधानिक स्थान दे दिया गया. अफसरों और नेताओं को बाकायदा हर कॉन्‍ट्रैक्‍ट में कुछ फीसदी का पत्ता दिया जाने लगा. ...और इस 'सुविधा शुल्क' से किसी को कोई आपत्ति या परहेज नहीं था. कॉन्‍ट्रैक्‍ट लीजिए, 8 से 10 फीसदी हिस्सा दीजिए और काम ठीक-ठाक तरीके से कर दीजिए. मामला ढका रहता था.

फिर आया बोफोर्स का धमाका. 1988-89 में बोफोर्स की तोपें ऐसी गरजी, कि साफ-सुथरी छवि वाले राजीव गांधी की सारी चमक धुल गई. आज के परिप्रेक्ष्‍य में देखें तो महज 64 करोड़ की तथाकथित घूसखोरी ने राजीव गांधी से सत्ता छीन ली. बोफोर्स घोटाले ने राजीव गांधी को देश के आइकॉन से आम नेताओं की कतार में ला खड़ा किया. भले ही इस दाग को गांधी परिवार आज नहीं मानता, लेकिन बोफोर्स के बाद शायद भ्रष्टाचार की परिभाषा सार्वजनिक सी हो गयी. हर नेता या शक्तिशाली शख्‍स इसमें लिप्त दिखा.

पिछले चार हफ्तों को ही देखें, तो लगता है जैसे हमारे देश में हर शाख पर उल्लू नहीं एक घोटालेबाज, एक भ्रष्ट आदमी बैठा है. 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में शायद 1,10,000 करोड़ का घोटाला हुआ. ये आंकड़ा लिखते वक्त मुझे ये एहसास भी नहीं हो रहा, कि इतना पैसा वाकई में कितना पैसा होता होगा. कहां रख सकते हैं इसको ...और अगर गलती से मिल जाये तो क्या पूरे जीवन में कोई इतनी बड़ी रकम को खर्च कर पायेगा. चलिये रकम की बात बेमायने है, भ्रष्टाचार के स्तर की बात करते हैं.

साफ–सुथरी छवि वाले मनमोहन सिंह भी आज सोचते होंगे की क्या राजनीति का ये दलदल उनके लिए सही विकल्प था? प्रधानमंत्री कार्यालय, लगभग सभी मंत्रालय, रक्षा महकमा, सेना, आईएएस अधिकारी से लेकर स्‍थानीय निकाय के प्रतिनीधि तक आज किसी ना किसी घोटाले में शामिल हैं. 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला, महाराष्ट्र का आदर्श सोसाइटी घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, कर्नाटक का कोयला खदान घोटाला, उड़ीसा का वेदांता घोटाला, मध्यप्रदेश का डंपर घोटाला ....इतने स्कैम के बाद अब तो घोटाला शब्द सुनते ही मन करता है कि भई कोई नयी खबर है तो बताओ, नहीं तो बक्शो. 

पिछले 2 हफ्तों से सरकार और विपक्ष ने संसद ना चलने देकर, लाखों करोड़ के राजस्‍व का नुकसान सिर्फ इसलिए कराया ताकि वो ये साबित कर सकें कि अगला उनसे ज्यादा भ्रष्ट है. तोहमत दोनो पक्ष एक दूसरे पर मढ़ रहे हैं– बिना किसी जिम्मेदारी के. किसी भी नीतिगत मसले पर कोई विचार नहीं हो रहा. फाइनेंस बिल के प्रवधानों पर बिना चर्चा, अतिरिक्त ग्रांट पास कर दिया गया. सरकार ये रकम कहां और कैसे खर्च करेगी– इस जानकारी को जनता तक पहुंचाने की अपनी जिम्मेदारी को विपक्ष निभाना ही नहीं चाहती और ना ही सरकार ने लोगों को कुछ बताने की जहमत उठाई कि 45 हजार करोड़ की अतिरिक्त राशि सरकार को किसलिए चाहिये? करीब 50 महत्वपूर्ण बिलों पर कोई चर्चा नहीं हुई है. ये बिल निरस्त हो जायेंगे.

अमेरिकी राष्‍ट्रपति के दौरे से देश को क्या मिला और क्या नहीं, इसपर ना तो सरकार चर्चा चाहती है और ना ही विपक्ष को कोई लेना-देना है. कुल मिलाकर देश को चलाने की सारी जिम्मेदारी अफसरों पर डालकर हमारे चुने हुये प्रतिनिधि सिर्फ अपनी जेब भरने में लगे हुये हैं. ऐसे में, अगर कोई बाबू, सरकारी खुफिया जानकारी बेचकर पैसे कमाने लगे, चरित्रहीना की सारी हदें भी पार कर जाये, तो कौन है देखने वाला. आईएएस अधिकारी रवि इंदर सिंह की गिरफ्तारी के बाद जो भ्रष्टाचार और चरित्रहीनता का नमूना सामने आया है, इससे तो अब पूरे सिस्टम से ही विश्वास खत्म होता दिख रहा है. इस सब पर तुर्रा तो ये, कि सिस्टम पर सवाल उठाने वाले पत्रकारों की एक जमात भी अपनी जड़ खुद ही खोदने लगे हैं. जैसे जैसे कुछ पत्रकारों की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं, भरोसा अब निष्‍पक्ष पत्रकारिता से भी उठता दिख रहा है.

वक्त अब हम सबों से ये सवाल करने लगा है कि आखिर कब तक हम अपने समाज, अपने देश, अपनी जमीन से गद्दारी करते रहेंगे? भ्रष्टाचार नामक इस दीमक से हमें कब छुटकारा मिलेगा? एक आम भारतवासी कब अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर, देशहित की बात सोचेगा? हर बार ये कहा जाता है कि भ्रष्टाचार वो कीड़ा है, जिसपर रोक-थाम लगाने की जिम्मेदारी ऊपर से शुरु होता है. लेकिन अब इस परिभाषा को बदलने की जरुरत है. इस कीड़े को हर भारतवासी को अपने स्तर पर ही मारना होगा. ये लड़ाई हम सबों की है, ना कि सिर्फ कुछ लोगों की. अगर मुन्नाभाई फिल्म में संजय दत्त भ्रष्टाचार का मुकाबला गुलाब के साथ कर सकते हैं, तो क्या हमारे बगीचों में गुलाब की कमी  हो  गयी है?




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