साबधान मोबाइल से

  मनोज जैसवाल मोबाइल फोन ने हमारी जिंदगी को थोड़ा आसान बनाया है। देश में मोबाइल रखने वाले 70 करोड़ से ज्यादा लोगों का रोजमर्रा का कामकाज इस यंत्र की बदौलत सुविधाजनक हुआ है। पर इस सहूलियत की हम कितनी बड़ी कीमत दे रहे हैं? हजार-पांच सौ के मोबाइल और आधा पैसा प्रति सेकंड जैसी दरों पर कभी भी और कहीं से भी बातचीत की सुविधा मिले तो इसके खतरों पर नजर डालना जरा बेवकूफी का काम लगता है। खास तौर से तब, जब इसका कोई संकट प्रत्यक्ष तो दिखाई भी नहीं पड़ता है।

हालांकि विदेशों में चल रहे कई शोधों के हवाले से ऐसी खबरें जब-तब यहां आती रही हैं कि करीब 15 साल से जिस सेलफोन ने हमारी जेबों में घनघनाना शुरू किया है वह हमारी सेहत के लिए काफी नुकसानदेह है। लेकिन इन रिसर्चों की प्रामाणिकता हमेशा संदिग्ध रही। यहां तक कि खुद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्युएचओ) ने पिछले साल मई में रिपोर्ट जारी कर कहा कि मोबाइल से डरने की जरूरत नहीं क्योंकि अब तक के शोध इसे साफ तौर पर सेहत का दुश्मन साबित नहीं कर पाए हैं। पर अब तो हमारे पास अपनी रिसर्च है। संचार तथा सूचना तकनीक मंत्रालय की ओर से बनाई गई हाई लेवल कमिटी ने हाल में अपनी रिसर्च के आधार पर नतीजा निकाला कि सेलफोन और उनके टावरों से रेडियो फ्रीक्वेंसी एनर्जी के रूप में निकलने वाला रेडिएशन तितलियों, मधुमक्खियों और गौरैया (चिडि़या) के विलुप्त होने के लिए भी जिम्मेदार है। ऐसा ही नतीजा जेएनयू में एक सरकारी प्रोजेक्ट के तहत चल रही रिसर्च में निकाला गया। वहां चूहों पर की गई रिसर्च का यह निष्कर्ष निकला है कि सेलफोन का रेडिएशन प्रजनन क्षमता पर असर डालने के अलावा मानव शरीर की कोशिकाओं के डिफेंस मैकेनिज्म को नुकसान पहुंचाता है।

समस्या का एक पक्ष यह है कि दुनिया के अरबों लोगों के हाथों में पहुंच चुके 0.2 से 0.6 वाट की ताकत वाले नन्हे रेडियो ट्रांसमीटर यानी सेलफोन का रेडियो-फ्रीक्वेंसी (आरएफ) फील्ड शरीर के टिश्यूज (उत्तकों) को प्रभावित करता है। वैसे तो शरीर का एनर्जी कंट्रोल मैकेनिज्म आरएफ एनर्जी के कारण पैदा गर्मी को बाहर निकालता रहता है, पर शोध साबित करते हैं कि सेलफोन से मिलने वाली फालतू एनर्जी कई बीमारियों की जड़ है। जैसे ब्रेन ट्यूमर, कैंसर, आर्थराइटिस, अल्झाइमर और हार्ट डिजीज। रिसर्चरों के मुताबिक जिस तरह माइक्रोवेव में पकाए जाने वाले भोजन में मौजूद पानी इसके विकिरण के असर से सूख जाता है, उसी तरह मोबाइल रेडिएशन हमारे खून की क्वॉलिटी और दिमाग की कोशिकाओं को प्रभावित करता है। पर दूसरी बड़ी समस्या है इनके ट्रांसमिशन टावर, जो शहरों में तकरीबन हर गली-मुहल्ले में घरों की छतों पर कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं। आप किसी तरह खुद को मोबाइल फोन से दूर कर लें, उसे रेडिएशन-मुक्त बनाने वाले किसी खोल से ढक दें, पर इनके टावरों से पैदा होने वाले रेडिएशन से कैसे बचेंगे? इनसे भी रेडियो फ्रीक्वेंसी की शक्ल में घातक इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक रेडिएशन निकलता है जो दो-ढाई मील के दायरे तक में फैला रहता है। अगर यह रेडियो फ्रीक्वेंसी इतनी दूरी तक नहीं जाएंगी तो नॉट-रीचेबल का संदेश सुनाने वाले नेटवर्क यानी मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर कंपनी की सेवाएं कौन लेगा? चूंकि देश में मौजूद करीब दर्जन भर मोबाइल कंपनियों में होड़ का मुद्दा सबसे ताकतवर नेटवर्क देना है। लिहाजा, इनके टावरों की संख्या और उनकी ताकत यानी ट्रांसमिशन की क्षमता यानी रेडिएशन का बढ़ना भी तकरीबन तय है।

साइंटिफिक पैमानों पर रेडिएशन की दर को मापा जाए , तो इस मामले में भारत फिलहाल इंटरनैशनल कमिशन ऑन नॉन - ऑयनाइजिंग रेडिएशन प्रोटेक्शन ( आईसीएनआरआईपी ) की गाइड लाइंस को मानता है। इनके मुताबिक मोबाइल टावर से 9.2 वॉट प्रति वर्गमीटर से ज्यादा रेडिएशन नहीं निकलना चाहिए। हालांकि डिपार्टमेंट ऑफ टेलिकम्युनिकेशंस ( डॉट ) ने इस रेडिएशन में 10 फीसदी कमी करने का सुझाव दिया है पर उसका यह भी मानना है कि मानव स्वास्थ्य के नजरिए से रेडिएशन की सेफ लिमिट इससे भी हजार गुना कम होनी चाहिए।

मोबाइल रेडिएशन के मामले में भारत मोटे तौर पर अमेरिकी मानकों को मानता है जहां टॉवरों को 580-1000 माइक्रोवाट प्रति वर्गमीटर का विकिरण फैलाने की छूट है। पर उसके बरक्स यूरोपीय देशों में यह लिमिट सौ से हजार गुना तक कम है। यह ऑस्ट्रेलिया में 200 माइक्रोवाट , रूस , इटली व कनाडा में 10 माइक्रोवाट , चीन में 6 माइक्रोवाट , स्विटजरलैंड में 4 माइक्रोवाट। पर सबसे बेहतरीन उदाहरण ऑस्ट्रिया है जहां इन्हें सिर्फ 0.1 माइक्रोवाट रेडिएशन निकालने की छूट है और यह अमेरिका के मुकाबले 10 हजार गुना कम है। इस मोबाइल टावर के खतरों से सबक लेते हुए न्यूजीलैंड में रेडिएशन की लिमिट अमेरिकी स्टैंडर्ड से 50 हजार गुना कम यानी 0.2 माइक्रोवाट करने की सिफारिश वहां की सरकार ने की है। क्या हमारा देश अपने नागरिकों की सेहत की फिक्र करते हुए इन देशों में से किसी एक के अनुसरण की पहल कर पाएगा ?

पर एक चिंता और है जिसका ध्यान न्यूजीलैंड के बायोफिजिसिस्ट डॉ . नाइल चेरी और चिकित्सा के नोबेल के लिए तीन बार नामांकित साइंटिस्ट डॉ . गेरार्ड हाइलैंड ने दिलाया है। इनके अनुसार अभी सारे मानक मोबाइल रेडिएशन के थर्मल इफेक्ट पर आधारित हैं। पर इस रेडिएशन से तो नॉन - थर्मल इफेक्ट भी पैदा होता है जो हमारे शरीर की कोशिकाओं की मृत्यु और डीएनए ब्रेकडाउन का खतरा पैदा करता है। ये दोनों साइंटिस्ट एक और बात रेखांकित करते हैं। वह यह कि मोबाइल रेडिएशन पर अभी तक सीमित अवधि के शोध हुए हैं , इसके दीर्घकालीन प्रभावों के बारे में अभी तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

उनकी राय से इत्तफाक रखते हुए किताब - द बॉडी इलेक्ट्रिक के लेखक डॉ . रॉबर्ट ओ . बेकर ने मोबाइल रेडिएशन को इस पृथ्वी का महानतम प्रदूषक करार दिया है। वह कहते हैं कि जिस रेडिएशन को कभी बिल्कुल सुरक्षित माना जाता था , उसी को अब बर्थ डिफेक्ट , डिप्रेशन , कैंसर , थकान , अनिद्रा जैसी कई बीमारियों का कारण माना जा रहा है। इसका साफ असर अमेरिका में महसूस किया जा रहा है जहां 1973 के बाद से ब्रेन कैंसर के मामले 25 फीसदी तक बढ़ चुके हैं।

भारत में अभी तक मोबाइल टावरों के खिलाफ जो इकलौती कार्रवाई हुई है वह यह कि म्युनिसपैलिटी की इजाजत के बगैर टावर लगाने वाली कंपनियों से इसका जुर्माना वसूल लिया गया। कोई भी टावर इसलिए नहीं सील किया गया कि वह वहां मौजूद आबादी की सेहत के लिए खतरनाक है। हमारी छतों पर यह जो धीरे - धीरे असंख्य भोपाल ( यूनियन कार्बाइड ) उग आए हैं , लोगों को इनसे बचाने की जरूरत उन्हें संचार के सतत नेटवर्क से जोड़े रखने से कई गुना ज्यादा है।
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