भारत और चीन के बीच सीमा विवाद तो पुराना है, लेकिन इतना पुराना भी नहीं कि दोनों देशों के बीच की दोस्ती और दीर्घकालीन आदान-प्रदान को प्रभावित करे। दरअसल 1950 वाले दशक के उत्तरार्द्ध से भारत और चीन के बीच जब-तब कड़वाहट प्रकट होने के लक्षण अधिक मुखर हुए हैं। 1962 की मुठभेड़ ने तो जैसे इस अदावत को एक विकराल रूप दे दिया। भारतीय मानस सोचने लगता है कि चीन कभी भी 62 को दोहरा सकता है और शायद चीनी मानस भी इस आशंका से ग्रस्त है कि भारत उस हादसे की भरपाई करने के लिए कभी भी बदले की भावना पर उतर सकता है। अगर ऐसा है, तो दोनों देशों के संबंधों में काम कर रही इस भीतरी छाया के दांत सबसे पहले उखाड़ने होंगे।
1962 के हादसे को स्मृति से बाहर तो नहीं किया जा सकता, लेकिन उसे दोनों देशों के बीच टकराव की धुरी भी नहीं बनाया जा सकता। हां, इतना जरूर है कि कोई भी सामान्य विवाद के उठने पर यह छाया अपना विकराल असर कर जाती है। सच यह है कि 1962 में भारत और चीन पश्चिमी उकसावे से इस खेल के शिकार बने और उस पर नव-स्वतंत्रता के अहंकार ने घी डालने का काम किया। 1962 कोई एक दिन में नहीं हुआ था। उसकी पृष्ठभूमि में ब्रिटिश इंडिया और चीन के बीच चल रहे इस विवाद का बारूद सुलगता रहा। साफ है कि भारत पर बर्तानवी शासन के दौर की यह आफत अब तक चली आ रही है। जिस मैकमोहन रेखा की अकसर बात की जाती है, वह ठीक-ठीक है कहां, इसका कोई ठोस दस्तावेज है नहीं, बस दावे-प्रतिदावे के आधार पर इसकी व्याख्या की जाती है, और अधिकतर जानकार यह कहते पाए जाते हैं कि इसका विकल्प वास्तविक नियंत्रण रेखा ही हो सकती है। इस रेखा को समझौते का मूलाधार बनाकर मैकमोहन रेखा के धुंधलेपन को खत्म किया जा सकता है और एक स्थायी सीमा रेखा को जन्म दिया जा सकता है। लेकिन इस सदाशयता को आधार बनाने की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है। जब तक यह हो नहीं जाता, तब तक तू बड़ा कि मैं बड़ा के दृश्यों को झेलते जाने के सिवा और कोई चारा नहीं है। नई परिस्थियों में नई पहल से ही कुछ ठोस और सकारात्मक पाया जा सकता है। 1914 के शिमला समझौते की भी अपनी-अपनी व्याख्याएं है। उन दावों-प्रतिदावों का समाधान भी इस प्रक्रिया में अपने आप हो सकता है। लेकिन यह एक जटिल काम है।
भारत और चीन के बीच आपसी सहकार का जो वर्तमान परिदृश्य है, वह इस मुकाम तक पहुंचने में दोनों देशों की खासी मदद कर सकता है। भारत और चीन के बीच जो द्विपक्षीय व्यापार 1984 में एक अरब डॉलर का आंकड़ा भी पूरा नहीं कर पाता था, वह आज 60 अरब डॉलर का आंकड़ा पार कर रहा है। दोनों देशों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में आपसी आदान-प्रदान भी कई गुना आगे बढ़ा है और इसके कम होने के कोई आसार नहीं, बशर्ते दोनों पक्ष छोटे-मोटे विवादों को आमने-सामने की लड़ाई में बदलने पर उतारू न हो जाएं।
भारत और चीन के उपभोक्ता बाजारों और संसाधन स्रोतों की छीनाझपटी उपनिवेशवादियों और साम्राज्यवादियों का पुराना सपना रहा है, इसी मकसद से वे भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का ताना-बाना लेकर भारत पर काबिज हुए थे और इसी मकसद से चीन के साथ 1840 का अफीम युद्ध हुआ था और हांगकांग उन्हें 99 वर्ष के लीज पर मिला था, जिसे छोड़कर बतार्निया अपनी मांद में लौट गया। ऐसे में हम बर्तानवी तर्को का फैसलाकुल झुनझुना नहीं बन सकते। दूसरी तरफ उपनिवेशवादियों द्वारा छोड़े गए प्रश्नों का सहारा लेकर चीन भी अनंत काल तक दोनों देशों के बीच के स्वाभाविक सौजन्य को मुलतवी नहीं कर सकता। अगर भारत और चीन को कोई ढाई अरब लोगों के जीवन को खुशहाल करना है, तो उन्हें दीर्घकाल से चले आ रहे विवादों को कूड़ेदान में डालना ही होगा। इसलिए भारत और चीन को इधर के दशकों में कायम हुए जोरदार आदान-प्रदान की पटरी के विस्तार की जरूरत है। इस मुहिम को जितना आगे ले जाया जाएगा, सीमा विवाद के समाधान का आधार उतना ही मजबूत होगा।
भारत और चीन के बीच आपसी सांस्कृतिक सहकार का हजारों वर्षों का इतिहास है। इसी सहकार के चलते दोनों देश प्राचीन सभ्यताओं के तौर पर दर्ज है और शायद इसी के चलते भारत और चीन में 1962 के अलावा हर्षवर्द्धन के दौर को छोड़कर कोई भिड़ंत नहीं हुई। यह कोई सामान्य बात नहीं है कि सैकड़ों वर्षों की साम्राज्यवादी जिल्लत झेलकर दोनों राष्ट्र आज दुनिया को एशिया की शताब्दी बनाने के उदाहरण के तौर पर पेश किए जाते हैं। उनके बीच आदान-प्रदान का सिलसिला लगातार मजबूत हो रहा है। इस मजबूती में ही आपसी विवादों के आखिरी समाधान की उम्मीद निहित है। इस नजदीकी को दूरी में बदलने के अंतराष्ट्रीय प्रयासों से सावधान रहने की जरूरत है विसेसकर पाकिस्तान ओर बंगलादेस के नापाक इरादों से बच कर ही हम ठीक रह सकते है१ आपका मनोज जैसवाल
भारत और चीन के बीच आपसी सांस्कृतिक sambandh {ultapulta}
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