Tweet मनोज जैसवाल=सुरक्षा एजेंसियों के साथ-साथ हर हिन्दुस्तानी के जेहन में इन दिनों एक ही सवाल उठ रहा होगा कि तिब्बती धर्मगुरु करमापा के पास करोड़ों की विदेशी करेंसी आई कहां से?
एक धर्मगुरु को इतने पैसे की आखिर जरूरत ही क्या थी? उन्हें लेकर जो शक जताया जा रहा है, उसमें कितना दम है? अगर शक सही है, तो ऐसे मेहमान के साथ क्या सलूक किया जाए?
पिछले कई सालों से सत्रहवें करमापा दोरजी खुफिया एजेंसियों के रडार पर थे. उनकी एक-एक गतिविधि को मॉनीटर किया जा रहा था. हरेक बातचीत पर नजर रखी जा रही थी. बाद में पुख्ता सबूत हाथ लगते ही उन्हें दबोच लिया गया.
कई सारी बातें सामने आ रही हैं. पैसे नेपाल और म्यांमार के रास्ते हवाला के जरिए आए. करमापा चीन के कई पीएलए लीडर के संपर्क में थे और यहां रहकर जासूसी कर रहे थे. मकसद था मठों पर अपनी पकड़ बनाकर दलाई लामा को कमजोर करना और तिब्बत मूवमेंट को खत्म करना.
साल 2000 से ही करमापा हमारे ख़ास मेहमान हैं. उनकी आवभगत में कितने रुपये फूंके जा रहे हैं, यह सबको पता है. बदले में इस मेहमान ने हमें क्या दिया, यह भी सबके सामने है. ऐसे में कई सवाल उठते हैं हमारी विदेश नीति को लेकर. सवाल यह भी उठता है कि बिना ठोके-बजाए हमने ऐसे व्यक्ति को शरण कैसे दे दी? सच कहा जाए तो हमारी नीतियों की वजह से हमें नुकसान ही हुआ है और इसका खामियाजा हम आगे भी भुगतेंगे.
वैसे भी तिब्बत को लेकर हमने काफी कुछ खोया है. यहां ये कहना गलत होगा कि तिब्बत से हमें कुछ नहीं मिला, लेकिन नफा-नुकसान की अगर तुलना करें, तो नुकसान ही ज्यादा हुआ है. आज भी चीन अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है. भारत में रह रहे दलाई लामा की टीस अब भी उसे कम नहीं सता रही. चीन से हमारे ख़राब होते संबंधों के बीच में कही न कहीं तिब्बत तो है ही. अब और भारत क्या-क्या खोएगा? ये सारे ऐसे सवाल हैं, जिसपर हम सबको एक-दो बार नहीं, बल्कि बार-बार सोचना चाहिए. यही गुजारिश सरकार से भी की जाती है.
यह दूसरी बात है कि करमापा की तरफ से सफाई में यह कहा जा रहा है कि दुनिया भर में फैले उनके चाहने वालों ने उन्हें ये पैसे दिए. दलाई लामा भी उनकी मदद में खड़े हो गए, लेकिन यहां जरूरत है यह समझने की कि आखिर दलाई लामा की मजबूरी क्या है? साथ ही साथ हमारी क्या मजबूरियां हैं? अब इंतज़ार इस बात का है कि करमापा के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाती है. बस इंतजार कीजिए, अभी और भी कई खुलासे होने हैं...
एक धर्मगुरु को इतने पैसे की आखिर जरूरत ही क्या थी? उन्हें लेकर जो शक जताया जा रहा है, उसमें कितना दम है? अगर शक सही है, तो ऐसे मेहमान के साथ क्या सलूक किया जाए?
पिछले कई सालों से सत्रहवें करमापा दोरजी खुफिया एजेंसियों के रडार पर थे. उनकी एक-एक गतिविधि को मॉनीटर किया जा रहा था. हरेक बातचीत पर नजर रखी जा रही थी. बाद में पुख्ता सबूत हाथ लगते ही उन्हें दबोच लिया गया.
कई सारी बातें सामने आ रही हैं. पैसे नेपाल और म्यांमार के रास्ते हवाला के जरिए आए. करमापा चीन के कई पीएलए लीडर के संपर्क में थे और यहां रहकर जासूसी कर रहे थे. मकसद था मठों पर अपनी पकड़ बनाकर दलाई लामा को कमजोर करना और तिब्बत मूवमेंट को खत्म करना.
साल 2000 से ही करमापा हमारे ख़ास मेहमान हैं. उनकी आवभगत में कितने रुपये फूंके जा रहे हैं, यह सबको पता है. बदले में इस मेहमान ने हमें क्या दिया, यह भी सबके सामने है. ऐसे में कई सवाल उठते हैं हमारी विदेश नीति को लेकर. सवाल यह भी उठता है कि बिना ठोके-बजाए हमने ऐसे व्यक्ति को शरण कैसे दे दी? सच कहा जाए तो हमारी नीतियों की वजह से हमें नुकसान ही हुआ है और इसका खामियाजा हम आगे भी भुगतेंगे.
वैसे भी तिब्बत को लेकर हमने काफी कुछ खोया है. यहां ये कहना गलत होगा कि तिब्बत से हमें कुछ नहीं मिला, लेकिन नफा-नुकसान की अगर तुलना करें, तो नुकसान ही ज्यादा हुआ है. आज भी चीन अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है. भारत में रह रहे दलाई लामा की टीस अब भी उसे कम नहीं सता रही. चीन से हमारे ख़राब होते संबंधों के बीच में कही न कहीं तिब्बत तो है ही. अब और भारत क्या-क्या खोएगा? ये सारे ऐसे सवाल हैं, जिसपर हम सबको एक-दो बार नहीं, बल्कि बार-बार सोचना चाहिए. यही गुजारिश सरकार से भी की जाती है.
यह दूसरी बात है कि करमापा की तरफ से सफाई में यह कहा जा रहा है कि दुनिया भर में फैले उनके चाहने वालों ने उन्हें ये पैसे दिए. दलाई लामा भी उनकी मदद में खड़े हो गए, लेकिन यहां जरूरत है यह समझने की कि आखिर दलाई लामा की मजबूरी क्या है? साथ ही साथ हमारी क्या मजबूरियां हैं? अब इंतज़ार इस बात का है कि करमापा के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाती है. बस इंतजार कीजिए, अभी और भी कई खुलासे होने हैं...
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